बस स्टैंड पर बस से उतरते ही सुखिया का चेहरा खिल उठा। पिताजी टैक्सी वाले से बात करने लगे, तो उसने टोकते हुए कहा- "नहीं बापू, हम पैदल ही चलेंगे, हम शहर घूमते हुए चलेंगे, सामान भी कोई ज़्यादा नहीं है न!"
" न बेटा, टैक्सी वाले ने बताया है कि मानस भवन तो बहुत दूर है! शहर बाद में घुमा देंगे!"-
पिताजी ने कहा।
फिर दोनों टैक्सी पर सवार हो गए। जैसे ही टैक्सी ने रफ़्तार पकड़ी, सुखिया पहले तो सपनों में खो गया, फिर गाड़ियों की आवाज़ों और होर्न के शोरगुल ने उसे बेचैन कर दिया। पिताजी ने उसे बाँहों में समेट लिया। मानस भवन पहुंचने पर सुखिया के पिताजी का चेहरा खिल उठा। आज उनका एक छोटा किन्तु खास सपना पूरा होने वाला था। समय पर पहुंचने के कारण दसवें क्रमांक पर सुखिया का पंजियन हो गया था। दोनों सभागार में जाकर बैठ गये। अब बारी-बारी से प्रतिभागी अपनी प्रस्तुति देने लगे थे।
आठवें, नौवें क्रमांक के बाद जब दसवें क्रमांक पर सुखिया का नाम नहीं पुकारा गया, तो पिताजी ने पूछताछ की। पता चला कि सुखिया का नाम पैंतीसवें स्थान पर कर दिया गया है।
"साहब, हमारे बेटे का नाम तो दसवें नंबर पर था! बहुत अच्छा कलाकार है साहब, थोड़ी कृपा हो जाये!" उन्होंने विनती की।
बाप-बेटे दोनों की ग्रामीण वेशभूषा देखकर कार्यकर्ता ने कहा-"क्या प्रतिभा है इसमें?"
"साहब, बढ़िया सुर-ताल में होरी, गारी, दादरा, सभी लोकगीत गा लेता है और बाँसुरी भी सुर में बजा लेता है!"
"हाँ, तो इसीलिए नाम पीछे करवा दिया है सर ने! वो क्या है कि मुख्य अतिथि नेताजी सपरिवार पधार चुके हैं, तो पहले लड़कियों का डांस-वांस होगा, फिल्मी आइटम सोंग होंगे, बाद में ही बाक़ी चीज़ें, समझे!"
इस जवाब को सुनकर सुखिया का जोश ठंडा पड़ गया। उसके पिताजी ने ऊपर लगे बैनरों पर नज़र डाली, जिन पर नेताजी की तस्वीरों के साथ लिखा हुआ था- "ज़िले की नैत्रहीन प्रतिभाओं का सम्मान कार्यक्रम"
शहर की आबोहवा दोनों को महसूस होने लगी।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आज के माहौल में यही तो होता है भाई साहब. क्या सुन्दर रचना है.
बहुत उम्दा , बधाई इस लघुकथा के लिए ..सादर |
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