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आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, जिलेबी ने लार टपका ही दिया था. भोपाल के पोहे की भी याद आ गयी.
अब कथा पर आते हैं.लड़कियों का चाट की दुकान से जलेबी की दुकान पर नजर डालने का कोई मतलब नहीं सध पा रहा है. इसके साथ साथ अचानक ही जलेबीबाई का जलेबी बनाते बनाते मायका और ससुराल का सम्बन्ध बताना कथा की तरतम्यता में थोडी़ हड़बडा़हट दिखा रहा है.
"ये जो मीठी चाशनी है न, इसे बस दलदल ही समझो, ससुराल का दलदल, जलेबियों की तरह लड़कियों को इसमें फंसकर यहाँ का सबकुछ अपना लेना पड़ता है मायके का सबकुछ भूलकर!" ...ससुराल को पहले से ही एक दलदल का रुप बता देना कथा को न्याय नहीं दे पा रहा है.साथ ही, मेरे विचार से, अगर जिलेबी मायका की कडा़ही और बेसन की कसावट को भूल जायेंगी तो ससुराल की चाशनी कैसे सोख पायेंगी? क्योंकि जिलेबी मायके के गर्म तेल के संस्कारों से ऎसी बन जाती है कि वो ससुराल की चाशनी को आत्मसात कर लेती है. और वो भी अपने को भूल कर नहीं.
"इन जलेबियों की तरह ससुराल वाले बहुओं के रूप में लड़कियों के भी मज़े लेते हैं, जो सबको खुशियाँ बांट-बांट कर ख़ुद बस पिसती रहती हैं!"......जलेबी का धर्म ही है मीठे हो कर दूसरों को आनन्द देना. अगर जिलेबी कड़वी हो या दांत तोड़ हो तो वो खाने से बच जायेंगी लेकिन क्या उनके जिलेबी होने का कोई अर्थ रह जायेगा? शायद नहीं.फ़िर वो मायके में रहे या ससुराल में किसी काम की नहीं होगीं.
जिलेबी बाई का अपनी कथा पर आना और स्त्री शिक्षा और स्वावलम्बी होने की बात एक अलग कथा का भान करा रही है.
सुधी जन इस पर अपने विचार देंगे.
सादर.
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