एक पारिवारिक फिल्म घर पर ही देखने के बाद दोनों के चेहरे ऐसे मुरझा गये थे, मानो फ़िल्म ने उन्हें आइना दिखाकर शर्मिन्दा कर दिया हो!
कुछ पलों के बाद वह उसके पास जाकर बैठ गया। लम्बी चुप्पी के बाद मन के भाव बह पड़े।
" सच है कि मैं तुम्हें कभी ख़ुश नहीं रख सका, और न ही तुम मुझे!"
वह चौंककर उसकी तरफ़ देखती रही, फिर बोल पड़ी, "मालूम है, बच्चों की वज़ह से तुमने मुझे तलाक़ नहीं दी, वरना..."
"वरना क्या? उस वक़्त मेरी माली हालत अच्छी नहीं थी, मेरी पसंद की कोई दूसरी मुझसे निकाह कैसे करती?"
"मिल तो बहुत जातीं, ये कहो न कि बच्चों का मोह था और मुझे यह रिश्ता झेलना पड़ा!"
"पर अब तो बच्चों के अपने-अपने घर भी बस गये हैं, हमारे झगड़ों की वज़ह से उन्हें अब हमसे कोई मतलब भी नहीं रहा! तो...."
"तो क्या, अब करना चाहते हो दूसरी शादी?"
"हाँ, यही कहना चाह रहा था, काश कोई ऐसा रास्ता हो कि तुम्हें तुम्हारे मन का और मुझे मेरे मन की जीवन साथी मिल जाये, और..."
"और क्या?"
वह एकदम झुंझलाकर बोल पड़ा, "सानिया, ज़िन्दगी अभी तो बहुत बाक़ी है न! दस या बीस साल हम साथ-साथ भला कैसे गुज़ारेंगे?"
"मैंने तो हमेशा कहा कि तुम अपनी पसंद की ख़ूबसूरत सी ज़हीन लड़की से निकाह कर लो, मेरी तो इस सरकारी नौकरी के भरोसे कट ही जाती, तुमसे कभी कुछ नहीं मांगती !"
"हाँ, सच कहा, तुम्हारे लिए तो तुम्हारी नौकरी ही हमेशा अहम रही है, मैं और मेरा बिजनेस कतई नहीं! काश तुम्हारी शादी भी तुम्हारी पसंद के उस असलम से ही होती, तो..!"
"मैं भी बोलूं!" बीच में ही सानिया ने कहा, " तुम्हारे दिलो-दिमाग़ में जब वो जुबेदा ही चढ़ी हुई थी, तो मुझे क्यों ढोया, रख लेते बच्चों को अपने ही साथ!"
"मैं, बच्चों को न तो तुम्हारे प्यार से महरूम रखना चाहता था और न ही मेरे, पर अब तो बच्चे भी हमें प्यार नहीं करते न, तो..."
"ये अमेरिका नहीं है जनाब, न कोई फ़िल्मी दुनिया! आज के मुसलमान दूसरे, तीसरे निकाह की नहीं सोचा करते निसार साहब, काट लेंगे ये दस-बीस साल भी, कुछ तुम बदलो, कुछ हम, बस !"
[मौलिक व अप्रकाशित]
Comment
वाह ,इतनी समझदारी आ जाये तो तलाक शब्द ,शब्द कोष से मिटा जाये ।बधाई सुंदर कथा हेतु आदरणीय शहजाद जी ।
आ.उस्मानी जी बहूत सुंदर लघुकथा . कई रिश्तों को ना चाहते हुए भी निभाना पडता है.
"आज के मुसलमान दूसरे, तीसरे निकाह की नहीं सोचा करते निसार साहब, काट लेंगे ये दस-बीस साल भी, कुछ तुम बदलो, कुछ हम, बस !" एकदम सटिक बात कही आपने
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी!अच्छा व्यंग किया है समाज के उसूलों पर!बेहतरीन प्रस्तुति!
इस कथा पर सब कुछ कुर्वान ..........
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