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तुम केवल परिभाषा जानो ,अच्छा है
और अमल सब हमसे चाहो, अच्छा है
देव सभी हो जायें तो , मुश्किल होगी
पाठ लुटेरों का भी रक्खो , अच्छा है
पत्थर जब जग जाते हैं, श्री चरणों से
इंसा छोड़ो , उन्हें जगाओ, अच्छा है
समदर्शी होता है ऊपर वाला, पर
छोड़ो भी , तुम काटो- छाँटो, अच्छा है
सूरज ,चाँद, सितारे, दुनिया को छोड़ो
चाकू पिस्टल ही समझाओ, अच्छा है
धड़ सारा कालिख में है यूँ रंगा हुआ
कोशिश कर के, पूँछ बचा लो, अच्छा है
प्रजातंत्र है , अपने पापों से बचने
तुम सियार की टोली पालो, अच्छा है
सूरज फूँको से कब बुझता है, फिर भी
सभी निशाचर फूँके मारो , अच्छा है
ओम, विरोधों में पड़ता है, पड़ जाये
ट्वींकल ट्वींकल तुम भी गाओ, अच्छा है
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गिरिराज भंडारी
Comment
ओम, विरोधों में पड़ता है, पड़ जाये
ट्वींकल ट्वींकल तुम भी गाओ, अच्छा है.... क्या बात है.. बहुत सटीक बात कही है आपने आज के माहौल के सन्दर्भ में , बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय गिरिराज जी ...सादर
ये भी अच्छा है !..:-))
सही है आदरणीय गिरिराज भाई, ये कहाँ की प्रगतिशीलता कि हर दफ़े एकपक्षीय हुए एक वर्ग को या तो कोंसते रहें या उसकी खिल्ली उड़ायें और अपनी पर आये तो तौबः-तौबः करते हुए कानों के लुलुए छुए जायें !
आपकी इस ग़ज़ल के सापेक्ष दो बातें अलग-अलग समझनी होंगी. पहली कि ऐसी जागरुक ग़ज़लें देखा-देखी नहीं कही जा सकतीं. तब तो और जब संप्रेषणीयता की तो छोड़िये, मिसरे ही साधने में हवा निकलती हो. क्योंकि ऐसी कहन के लिए जिस संचेतना की आवश्यकता होती है, वह अगर अरुज़ का साथ न ले पाये तो किया-कराया सटीक तो क्या, हास्यास्पद अधिक दिखने लगता है. इस दम पर आपकी कोशिश का बल बहुत सही दिशा में प्रभावी है. दूसरी बात ये, कि ज़मीनी मुहावरों पर ज़बर्दस्त पकड़ हो. यह कहन के ’विट’ को और मारक कर देता है. ऐसे में भी संप्रेषणीयता के सापेक्ष निहितार्थ की धार प्रखर होनी अत्यंत आवश्यक है. इस विन्दु पर थोड़ी और कोशिश आवश्यक लगी है. मुहावरे तो हैं लेकिन संयोजन को और सटीक होना था, ताकि संप्रेषणीयता एकदम से तीर की तरह लगे. लेकिन, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि इस विन्दु पर प्रस्तुतीकरण में कोई असहजता है. बल्कि, जिस ऊँचाई पर आप कथ्य को ले जाना चाह रहे हैं, उसके हिसाब से मैं कह रहा हूँ. क्योंकि आपने स्वयं ही इस ग़ज़ल का मानक-विन्दु औसत से बहुत ऊपर रखा हुआ है. यह तथ्य मतले से ही समझ में आजाता है. इसी के सापेक्ष आदरणीय रवि भाई के प्रश्न समीचीन और सटीक लगे हैं.
आपको इस प्रखर और मुखर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई .. यह तेवर बना रहे, आदरणीय.
शुभ-शुभ
बहुत खूब ॥ आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ |
हाँ ये कुछ बात हुई ! जबान का जायका और व्यंग का तड़का. कोई आपकी राजनीति से सहमत हो न हो ये अलग मसाला है लेकिन ग़ज़ल में थोड़ी राजनीति का होना भी जरूरी. आपकी ग़ज़ल आपनी बात प्रभावी ढंग से पहुँचाने में कामयाब है. दुआ है आपकी धार और तेज हो...
आदरणीय सुशील भाई , हौसला अफज़ाई के लिएय आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीया राजेश जी , आपकी सराहना ने मेरा उत्साहवर्धन हुआ , आपका हार्दिक आभार ।
आदरनीय रवि भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभार ।
प्रजातंरे वाले शे र मे आपकी सलाह में भी वही भाव है , जो मेरे शेर मे है , दोनों सही हैं
आपने सही कहा है इस मिसरे मे एक फा कम है -- ओम, विरोधों पड़ता है, पड़ जाये
दरासल बीच मे एक में रह गया है -- उसे कृपया ऐसे पढ़े --
ओम, विरोधों में पड़ता है, पड़ जाये
तुम केवल परिभाषा जानो ,अच्छा है
और अमल सब हमसे चाहो, अच्छा है
देव सभी हो जायें तो , मुश्किल होगी
पाठ लुटेरों का भी रक्खो , अच्छा है
वाह क्या ख्यालात हैं आदरणीय गिरिराज जी ... शेर दर शेर दाद कबूल फरमाएं सर।
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