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बात सही है आज भी , यूँ तो है प्राचीन
जिसकी जितनी चाह है , वो उतना गमगीन
फर्क मुझे दिखता नहीं, हो सीता-लवलीन
खून सभी के लाल हैं औ आँसू नमकीन
क्या उनसे रिश्ता रखें, क्या हो उनसे बात
कहो हक़ीकत तो जिन्हें, लगती हो तौहीन
सर पर चढ़ बैठे सभी , पा कर सर पे हाथ
जो बिकते थे हाट में , दो पैसे के तीन
बीमारी आतंक की , रही सदा गंभीर
मगर विभीषण देश के , करें और संगीन
कुछ तो सचमुच भैंस हैं , बाक़ी भैंस समान
कोई ये समझाये अब , कहाँ बजायें बीन
घर की सारी झंझटें , हो जायेंगी साफ
पिछले हों संस्कार सब , सुविधा अर्वाचीन
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
कुछ तो सचमुच भैंस हैं , बाक़ी भैंस समान
कोई ये समझाये अब , कहाँ बजायें बीन.....हाहाहा आदरणीया आनंद आ गया नमन करता हूँ
अवश्य ! मुझे ही नहीं, आदरणीय अनुज महोदय, आपके आचरण और व्यवहार से पूरे प्रबन्धन को कष्ट हुआ करता है. उन सभी के आचरण से कष्ट होता है, जो उच्छृंखल आचरण के साथ पटल की चर्चाओं और रचनाओं में बकवाद की छौंक लगाया करते हैं.
आप ही नहीं सभी सदस्य जान लें, कि ’सदस्यों’ के ऐसे प्रतीत होते आचरणों पर प्रबन्धन-सदस्यों के बीच करीब हर पखवारे बातचीत होती रहती है. मैं यदि आपकी बात बार-बार आपके सामने रखता हूँ, तो यह आपकी आंतरिक ’समझ’ के ऊपर भरोसा कर ही रखता हूँ. कि आप ज़हीन हैं, समझ जायेंगे. किन्तु, मुझे अभी आश्वस्त होना बाकी है.
आप जानें महोदय, यदि ऐसी प्रवृत्ति या ऐसे आचरण पर समय-समय पर अंकुश न लगाया गया होता तो यह मंच अपने छः वसंत कत्तई न देख पाता. विकट विद्वानों की इस संसार में कोई कमी नहीं है. वे समझ के तौर पर अकाट्य होते हैं, लेकिन बेकार होते हैं. सामंजस्य बनाये रख कर, आत्मीयता से, बिना खिल्ली उड़ाये, ’सीखने-सिखाने’ का समरस माहौल बनाते हुए अपनी बातें रखने वाला प्रणम्य होता है. शेष की निर्मम थूका-फ़ज़ीहत होती है. यज्ञ में समिधा डालने वाले पण्डित होते हैं, आदरणीय, और विष्टा डालने राक्षस. जबकि आहूत यज्ञ में दोनों का आह्वान होता है. ओबीओ का मंच एक खुला यज्ञ है.
विश्वास है, आगे से आपको समझाना और अगाह नहीं करना पड़ेगा.
सादर
आदरणीय सौरभ जी,
मुझे लगता है कि आपको मेरे इस मंच होने से बहुत कष्ट है, लेकिन ये कष्ट आपको आज के बाद नहीं उठना पड़ेगा.
सादर
आदरणीय अनुज भाई - आपकी प्रतिक्रिया के अंत मे इस लाइन को जोड़ने का क्या मै कारण और अर्थ और उद्देश्य जान सकता हूँ ? आशा करता हूँ आप मेरे इस प्रश्न का जवाब ज़रूर देंगे ।
// ‘भैसें हों चहुँ ओर तो, कहाँ बजाये बीन’ //
आदरणीय गिरिराज जी,
“कोई ये समझाये अब” को ‘कोई अब समझाये ये’ करने पर 'ये' और 'ये' की तकरार होती है इस तरह की तकरार को एबे-तनाफुर कहते हैं. इस बात को आप भी जानते हैं. इस ऐब से बचने के लिए मैंने ये डमी लाईन प्रस्तुत की थी. इस के अतिरिक्त इसका न कोई और कारण था न अर्थ और न उद्देश्य. मैंने ये बिलकुल नहीं कहाँ था कि आप इसे अपने शेर में शामिल कर लें. आप मुझसे हर तरह से वरिष्ठ हैं, आप खुद इससे बेहतर पंक्ति लिख कर इस शेर को पूरा कर सकते हैं.
मेरी इस पंक्ति की वजह से आप को कष्ट उठाना पड़ा इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ.
सादर
आदरणीय अनुज भाई - आपकी प्रतिक्रिया के अंत मे इस लाइन को जोड़ने का क्या मै कारण और अर्थ और उद्देश्य जान सकता हूँ ? आशा करता हूँ आप मेरे इस प्रश्न का जवाब ज़रूर देंगे ।
// ‘भैसें हों चहुँ ओर तो, कहाँ बजाये बीन’ //
आ. सौरभ भाई , आपने सही कहा , गलती मेरी से हो गई कि मै भैंस और बीन शब्द नीचे की लाइन मे देख के उसे मेरा ही शे र समझा, और पढते पढ्ते थक चुके होने के कारण पूरी लाइन भी नहीं पढा और बची हुई ज़िम्मेदारी निभाने के लिये पर्तिक्रिया देना शुरु कर दिया, अब पढा तो उस लाइन का छिपा हुआ मंतव्य समझ मे आया है ।
निश्चित ही वो पंक्ति इस सीखने-सिखाने के मंच में स्वीकार योग्य नही है ।
मै अपनी लापरवाही ( चाहे कारण थकावट हो ) आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ ।
आदरणीय अनुज महोदय, मात्रिक बहरमें आपने जो कुछ कहा है वह सही है. इसी कारण फेलुन फेलुन जहाँ होगा उसके अंतर्निहित गुण स्वयमेव अनुकरणीय होंगे. मात्रिक बहर वस्तुतः ’बहरे मीर’ कहते हैं.
लेकिन, आदरणीय सज्जन, आपने इस मंच पर अबतक कितने दोहे प्रस्तुत किये हैं ? कितनों दोहों पर आपने अबतक तार्किक टिप्पणी की है ? फिर, प्रस्तुत संदर्भ में दोहे को लेकर आप द्वारा कुछ कहना यदि असहज होगा या वैसा प्रतीत होगा, तो उस पर कुछ कहना आपको वाचाल क्यों बना रहा है ?
एक प्रारम्भ से कहता रहा हूँ, आपकी टिप्पणियों को मैं ही नहीं, इस मंच का पूरा प्रबन्धन बहुत ग़ौर से देखता और पढ़ता है. आपकी जानकारी पर कभी उँगली नहीं उठी है. आगे भी नहीं उठेगी, यदि, आप सार्थक चर्चा में सहज बने रहेंगे. अन्यथा, महोदय, आप ’टिकलिंङ’ का खेल खेलेंगे तो आपसे बहुत कुछ कहना-सुनना आवश्यक होगा. यह मंच सीखने-सिखाने के लिए समर्पित मंच है. यहाँ हम सभी समवेत सीखते हैं. कोई जानकार ’ज्ञान’ नहीं ’बघारता’. बल्कि, सीखने के क्रम में सारे सदस्य अपने अनुभव, अपनी सीख, अपनी बातें ’साझा’ करते है. सीखने के क्रम में जो अनुभव और तात्कालिक प्राप्ति हुई होती है, उसी को साझा करने की प्रक्रिया का नाम ओबीओ है. अन्यथा, यह मंच विकट विद्वानों की कद्र नहीं करता. क्योंकि वे सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के सबसे बड़े अवरोध हुआ करते हैं और हम जैसे सीखने वालों के लिए तीक्ष्ण नोक बने रहते हैं. इसी कारण, इस मंच पर रचनाओं को समादृत करने की परम्परा है, न कि रचनाकारों को. जैसी रचना वैसा ही रचनाकार.
आप सीखने के क्रम में अनुभवी और जानकार हैं तो आपका सदा स्वागत है, अन्यथा तिर्यक बहसबाजी की आदत है तो आपकी समझ को शीघ्र प्रणाम किया जायेगा.
सादर
आदरणीय गिरिराज भाई
// ‘भैसें हों चहुँ ओर तो, कहाँ बजाये बीन’ जैसे किसी परिवर्तन से आप इससे आसानी से निपट सकते हैं. //
क्या ओबीओ पर इन जैसे वाक्यों के सापेक्ष बहस होगी ? मुझे दुख है गिरिराज भाई, आपने स्वीकार किया. जबकि आपसे या आपकी जगह किसी से अपेक्षा सहज प्रतिकार की होनी थी.
यह आपकी कैसी और कौन सी सदाशयता है ? यह नम्रता नहीं हो सकती है आदरणीय.
आदरणीय रवि भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
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