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विकास-यात्रा /लघुकथा

"ओ रे बुधिया , अब ये फूस हटाना ही पड़ेगा अपनी टपरी से "

" ई का कह रहे हो बुड्ढा , अब हम सब बिना छत के रहें का ? "

" नाहीं रे , कुछ टीन टपरा जोड़  लेंगे  "

"  काहे जोड़ लेंगे  टीन-टप्पर , क्यु कहे तुम  फूस हटाने को ?"

" खेत से आवत रहें तो गाँव के जोरगरहा दुई जन  को कुछ कहते सुनत रहे , ओही से कहे है "

" का सुन लिये रहे हो ?"

" कहत रहे कि फुसहा घर गाँव के विकास में घोड़े के लीद पर उगे कुकुरमुत्ते के समान है ।   "

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Manan Kumar singh on June 20, 2016 at 8:51pm
कहने का अंदाज असरदार है,बात दमदार है;बधाई लें।
Comment by TEJ VEER SINGH on June 20, 2016 at 2:09pm

हार्दिक बधाई आदरणीय कांता जी! बेहतरीन  प्रस्तुति!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 20, 2016 at 11:00am

आदरणीया कांता जी , आपकी( कथा ) विकास यात्रा अच्छी लगी , हार्दिक बधाई आपको

Comment by Ravi Prabhakar on June 20, 2016 at 7:44am

/फुसहा घर गाँव के विकास में घोड़े के लीद पर उगे कुकुरमुत्ते के समान है/ एक पंक्‍ित कथित विकास यात्रा की सम्‍पूर्ण कहने में सक्षम है। बधाई आदरणीय कांता रॉय जी ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 16, 2016 at 9:49am
बेहतरीन भावपूर्ण सारगर्भित मारक क्षमता वाली रचना के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीया कान्ता राय जी।

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