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दंड(लघुकथा)राहिला

"सूरज देवता! दया करो प्राणी जगत पर।आपके क्रोध की अग्नि में सब कुछ झुलस गया । "
पवन रानी हाथ जोड़ कर बोलीं ।
"देवी! आपको भ्रम हुआ है । मैं कतई क्रोधित नहीं हूं । मैं तो सदियों से जैसा था वैसा ही हूं।"
"प्रभु! फिर धरती पर इतनी तपन क्यों? अब तो मेरा भी दम घुटने लगा है । मनुष्य और जीवों में त्राहि-त्राहि मची है । "
"इसका कारण कोई और नहीं,स्वंय मनुष्य है। प्रकृति के साथ निरंतर छेड़छाड़ और स्वार्थ की हद तक धरती के साथ दुर्व्यवहार का नतीजा है ये।"
"परन्तु कोई तो समाधान होगा ।"
"देवी!इस समस्या का समाधान सिर्फ राजा इन्द्र ही कर सकते है।"
सूरज देवता की बात मान, पवन रानी! भगवान इंद्र की सभा में जा पहुँची। "देखो देवी!आपकी चिंता अपने स्थान पर उचित है,परन्तु मनुष्यों को उनकी धृष्टा का दंड देना भी जरूरी है।"
लेकिन प्रभु!पहले ही मानव जाति के कारण धरती अपना सौंदर्य खो चुकी है।उसपर अब आपकी कृपा भी ना हुयी तो,जीवनदायनी धरती को आग का गोला बनते क्या देर लगेगी। धरती पर दया करो प्रभु!"
"बात धरती की है,वो तो ठीक है परंतु...."कुछ विचार करते हुए उन्होंने पवन रानी की विनती स्वीकार कर ली।
और अगले ही पल जबर्दस्त बड़े, बड़े ओलों की बरसात के साथ खूब जान माल की हानि हुयी।लेकिन बेसुध धरती अमृत पा कर जी उठी।
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on June 21, 2016 at 1:07pm

हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी! पर्यावरण के संरक्षण को लेकर बेहतरीन लघुकथा! मनुष्य को उसके क्रूर कर्मों का दंड भी अनिवार्य है!सुंदर प्रस्तुति!

Comment by Shyam Narain Verma on June 21, 2016 at 11:14am
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई

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