२१२२ २१२२ २१२२
याद उसको आज जब मैं कर रहा था
हिचकियाँ उसको न आयें डर रहा था
जिस जगह पर हुक्मरानों का महल है
हम गरीबो का वहाँ कल घर रहा था
जिस ग़ज़ल के दाम लाखों में लगे थे
उसका शाइर आज भूखा मर रहा था
वो सियासत दार कैसे मिलता तुमसे
रात दिन बस वो खजाने भर रहा था
वक़्त था अंतिम मगर वो झूठ बोले
वो हकीकत में कहाँ फिर मर रहा था
भेष को अपने बदलकर राम जैसे
रोज सीताओं को रावण हर रहा था
ढो रहे थे ईंट रोड़े आज घोड़े
घास गदहों का कबीला चर रहा था
ये जमी जोरू लड़ाई का सबब है
पर सबब सबसे बड़ा बस जर रहा था
तिश्नगी आँखों में उसकी ढूंढें आशू
जो सरापा जाम से ही तर रहा था
मौलिक व अप्रकाशित
F-30
Comment
जिस जगह पर हुक्मरानों का महल है
हम गरीबो का वहाँ कल घर रहा था -- लाजवाब ! आदरणीय आशुतोष भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही , दिल से बधाइयाँ आपको ।
आदरणीय महेंद्र जी रचना पर आपकी प्रतिक्रियाके लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय श्याम जी आपका प्रोत्साहन मुझे सतत मिलता है ..रचना पर आपकी सकारत्म प्रतिक्रिया से मुझे हौसला मिला है सादर धन्यवाद के साथ
आदरणीय हर्ष जी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया से मुझे उर्जा मिली है ..तहे दिल धन्यवाद स्वीकार करें सादर
जिस ग़ज़ल के दाम लाखों में लगे थे
उसका शाइर आज भूखा मर रहा था
इस लाजवाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई सादर । |
बहुत ही उम्दा आशुतोष मिश्र जी ...
"
जिस ग़ज़ल के दाम लाखों में लगे थे
उसका शाइर आज भूखा मर रहा था"
अच्छी पेशकश आ० आशुतोष जी !!..सभी शेर अच्छे रहे...दाद कबूल कीजियेगा !!
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