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ऐसे लूटा गया साँवला कोयला (ग़ज़ल)

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

 

था हरा औ’ भरा साँवला कोयला

हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला

 

वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन

इसलिए हो गया साँवला, कोयला

 

चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये

जिन्दगी भर जला साँवला कोयला

 

खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये

जल के विद्युत बना साँवला कोयला

 

हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर

और जलता रहा साँवला कोयला

 

चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है

ऐसे लूटा गया साँवला कोयला

------------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 27, 2016 at 11:55pm

धर्मेंद्र जी आपकी ग़ज़लों में नित नए  प्रयोग देखने को मिलते हैं। साँवला कोयला रदीफ़ भी उसी का मुज़ाहरा है । खास कर इस शेर की खूबसूरती के क्या कहने  

वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन

इसलिए हो गया साँवला, कोयला

दाद कुबूल हो 

Comment by Sushil Sarna on June 27, 2016 at 8:20pm

वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन
इसलिए हो गया साँवला, कोयला

चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये
जिन्दगी भर जला साँवला कोयला

बहुत खूब आदरणीय धर्मेन्द्र जी ... बहुत गहन अहसास पिरोये हैं आपने अपने शेरों में .... इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक मुबारकबाद कबूल फरमाएं।

Comment by Harash Mahajan on June 27, 2016 at 2:16pm

"

चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये

जिन्दगी भर जला साँवला कोयला"...अति सुंदर !!

दाद ..वसूल पाइयेगा ..आ० धर्मेन्द्र जी !!

सादर !

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on June 27, 2016 at 12:02pm
बहुत ही सुन्दर गजल बधाइयाँ
Comment by Mahendra Kumar on June 27, 2016 at 11:09am
अर्थपूर्ण ग़ज़ल आदरणीय.. हार्दिक बधाई!
Comment by Shyam Narain Verma on June 27, 2016 at 10:44am
बहुत ही सुन्दर ,  हार्दिक बधाई आपको …………..

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