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ग़ज़ल - भूल जा संवेदना के बोल प्यारे // --सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२

फ़र्क करना है ज़रूरी इक नज़र में
बदतमीज़ों में तथा सुलझे मुखर में

शांति की वो बात करते घूमते हैं
किन्तु कुछ कहते नहीं अपने नगर में

शाम होते ही सदा वो सोचता है-
क्यों बदल जाता है सूरज दोपहर में

भूल जा संवेदना के बोल प्यारे
दौर अपना है तरक्की की लहर में

हो गया बाज़ार का ज्वर अब मियादी
और देहाती दवा है गाँव-घर में

आदमी तो हाशिये पर हाँफता है
वेलफेयर-योजनाएँ हैं ख़बर में

क्यों न फिर बरसात का मौसम मज़ा दे
चल रही जब नाव, काग़ज़ की, लहर में

पत्रकारों के बनाये राष्ट्र-नेता
बिक रहे अख़बार जैसे.. देश भर में

हँस रहा ’सौरभ’ अगर.. तो साथ हँसिये..
देखनी क्यों कील उसके पाँव-सर में ?
***************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 3, 2016 at 4:10pm

आदरणीय सौरभ सर ..आपकी शानदार ग़ज़ल से बहतु कुछ सीखने को मिला ..रचना पर प्रतिक्रियाओं के माध्यम से तमाम नयी जानकारी हासिल हुई ..तमाम रचनाओं को ..जिन पर कोइ भी चर्चा नहीं हो पाती है ...को पढने से ज्यादा जानकारी आपकी एक अंतराल के बाद आने वाली  रचना को पढने से मिलती है ..आपकी रचनाओं को पढने के बाद एक नयी सोच और प्रयोग से जहाँ रचना धर्मिता को नया आकाश मिलता है वही अब तो जो लिखा है उसकी शिल्प को और प्रगाढ़ करने में मदद मिलती है ..मैं तो हमेशा ही आपसे निवेदन करता हूँ ..और आज भी कर रहा हूँ ..रचनाओं पर कम होती प्रतिक्रियाओं  से अब लगने लगा है कि या तो सब त्रुटीबिहीन लिखने लगे हैं  या फिर बिद्वत जन सुधार की उम्मीद ही छोड़ चुके हैं ....हम जैसा लिखने वालों में कितना सुधर हुआ है ये तो मुझे पता नहीं लेकिंन यदि किंचित मात्र भी सुधार हुआ है तो इस तरह प्रतिक्रियाओं के माध्यम से हुई बहस से हुआ है ..आपसे एक बार फिर सादर निवेदन है कि कम से कम एक रचना पर प्रतिदिन आप अपना पक्ष बिस्तृत रूप से रखेंगे तो रचना पर हुई इस समीक्षा से  हमारे प्रयासों को गतिशीलता मिलेगी ....मैं अपने दिल की बात लिख रहा हूँ यदि कोइ भूल हो गयी हो तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा ..सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Mahendra Kumar on July 3, 2016 at 1:29pm
आदरणीय सौरभ सर, यूँ तो प्रत्येक शेर की तरह इस शेर के भी कई मतलब निकलते हैं लेकिन यदि हम इस ग़ज़ल के मूलभाव को ध्यान में रखें तो इसका प्रमुख भाव यह निकलता है कोई चीज़ जब तक हमें प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित नहीं करती वह दूसरों के लिए कितनी भी कष्टकारी क्यों न हमें आनन्दायक ही प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए, अपने ए.सी. हॉल में सुरक्षित बैठ के सीमा पे मारे जा रहे सैनिकों और चल रहे युद्ध (बरसात का मौसम) की टी.वी. पे ख़बर सुन के देशभक्ति के नारे लगाना (मज़ा) बहुत आसान है क्योंकि उस युद्ध (लहर) में सिपाही (नाव) दूसरे का बेटा (काग़ज़) है। आपके शेर से निकला यही कड़वा सच मुझे बेहद पसंद आया इसीलिए मैंने इसे उद्धृत किया था। सादर!
Comment by Dr. Vijai Shanker on July 3, 2016 at 9:38am
आदरणीय सौरभ पांडेय जी , समसामयिक स्थिति का बहुत ही सही चित्रण करती हुयी रचना , कई बार पढ़ी। बहुत बहुत बधाई , सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 3, 2016 at 9:10am

भाई शिज्जू जी, आपने ग़ज़ल को समय दिया, हार्दिक धन्यवाद।

शांति शब्द पर आ. तस्दीक अहमद को भ्रम था, उसका निवारण हो गया। इस मुद्दे पर हम और चर्चा न करें। दिक्कत है कि हम अब पूछने-जानने की जगह सीधे ग़लतियाँ बताने लगते हैं। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 3, 2016 at 6:35am
आदरणीय सौरभ सर ग़ज़ल का मतला वाकई प्रहारक है मुखरता अपनी सीमाएँ लाँघ जाये तो उच्छृँखलता में बदल जाती है, खूब बात कही है आपने। बाकी के अश'आर भी अच्छे हुये हैं खासतौर पर बरसात व काग़ज़ की नाव वाले शे'र के कई आयाम हैं। 'शांति' के वज्न को लेकर मैं आ.निलेश भाई एवं आ. राजेश दीदी से पूर्णतः सहमत हूँ 21 ही होगा।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 3, 2016 at 3:22am

एक बात स्पष्ट करनी है. आकारन्त संज्ञा का बहुवचन उसी संज्ञा का एकारान्त रूप हो जाता है. जैसे, घोड़ा का बहुवचन घोड़े. लड़का का बहुवचन लड़के. काँटा का बहुवचन काँटे  आदि. इसी तरह फरमा का बहुवचन फरमे होगा, न कि फरमें होगा जैसा कि प्रस्तुत हुई ग़ज़ल में प्रयुक्त हुआ है. अर्थात जानते-बूझते कई बार गलतियाँ हो जाती हैं. अतः हमें रचनाकार के तौर पर सतत सचेत व अभ्यासी बने रहना होगा. इस तथ्य की ओर आदरणीय अग्रज एहतराम भाई ने ध्यान दिलाया. मैं आदरणीय का हृदय से आभारी हूँ. 

उस हिसाब से अधोलिखित शेर में परिवर्तन हुआ है। 

भूलजा संवेदना के बोल प्यारे 

दौर अपना है तरक्की की लहर में 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 2, 2016 at 11:45pm

आदरणीय महेन्द्र जी, आपको ग़ज़ल रुचिकर लगी, तो मैं भी अपने प्रयास के प्रति आश्वस्त हुआ. हार्दिक धन्यवाद.

आपने जिस शेर को उद्धृत किया है, उसमें ऐसा क्या ख़ास लगा, यदि आप उसे भी साझा करते तो मेरी सोच के विस्तार को नये आयाम मिल सकते थे. 

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 2, 2016 at 11:41pm

हार्दिक आभार आदरणीय नीलेश भाई जी. आपने आदरणीय तस्दीक साहब को शांति का वज़न ठीक-ठीक समझा दिया. वस्तुतः, हिन्दुस्तानी भाषा में ग़ज़ले कहना और उर्दू में ग़ज़लें कहने से कई मायनों शब्दों के व्यवहार को लेकर अलग है. 

विश्वास है, आदरणीय तस्दीक साहब संतुष्ट हो गये होंगे. 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 2, 2016 at 11:39pm

भाई जयनित, ग़ज़ल अच्छी लगी, तो मुझे भी अच्छा लगा. 

शुभ-शुभ

Comment by Mahendra Kumar on July 2, 2016 at 11:29pm
क्यों न फिर बरसात का मौसम मज़ा दे
चल रही जब नाव, काग़ज़ की, लहर में


आदरणीय सौरभ सर, बहुत ही उम्दा ग़ज़ल! हार्दिक बधाई स्वीकार करें, सादर!

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