सात जन्म दे जाए ...
मेघों का जल
कौन पी गया
कौन नीर बहाये
क्यूँ ऋतु बसंत में आखिर
पुष्प बगिया के मुरझाये
प्रेम भवन की नयन देहरी पर
क्यूँ अश्रु ठहर न पाए
विरह काल का निर्मम क्षण क्यूँ
धड़कन से बतियाये
वायु वेग से वातायन के
पट रह रह शोर मचाये
छलिया छवि उस बैरी की
घन के घूंघट से मुस्काये
वो छुअन एकान्त पलों की
देह भूल न पाये
तृषातुर अधरों से विरह की
तपिश सही न जाए
नयन घटों की व्याकुल तृप्ति
दूर खड़ी सकुचाये
गौर कपोल पे कुंतल-लट की
क्रीडा उधम मचाये
पी वियोग में अंजन रेखा
अंसुअन संग बही जाए
बाट जोहती अांखों की
बैरी व्यथा समझ न पाए
करूं समर्पण अपना सब कुछ
जो वो लौट के अाये
चुटकी भर सिंदूर से मुझको
सात जन्म दे जाए
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
अादरणीय शिज्जू शकूर साहिब प्रस्तुति पर अपकी ऊर्जावान प्रशंसा का तहे दिल से शुक्रिया।
अादरणीया कांता रॉय जी सृजन के भावों को अात्मीय मान देने का हार्दिक अाभार।
प्रेम भवन की नयन देहरी पर
क्यूँ अश्रु ठहर न पाए
विरह काल का निर्मम क्षण क्यूँ
धड़कन से बतियाये ----- अद्भुत भाव !
पी वियोग में अंजन रेखा
अंसुअन संग बही जाए
बाट जोहती अांखों की
बैरी व्यथा समझ न पाए---वाह ! वाह ! अप्रितम अभिव्यक्ति देखने को मिली आपकी फिर से आदरणीय सुशिल सरना जी . बधाई आपको .
अादरणीय रक्ताले साहिब प्रस्तुति को अापनी अात्मीय प्रशंसा से मान देने का हार्दिक अाभार। अापके द्वारा इंगित संदेह को दुरुस्त कर पुनः प्रेषित कर रहा हूँ। अापके इस सुझाव का दिल अाभार।
आदरणीय सुशील सरना साहब सादर नमन, विरह वियोग पर सुंदर रचना हुई है. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. फिरभी कुछ जगह देख लें.
किसने नीर बहाये.................यहाँ कौन नीर बहाए तो ठीक है किन्तु किसने.... देख लें.
नयन घटों 'पर' व्याकुल तृप्ति
'दूर' खड़ी सकुचाये......................यहाँ 'पर' या 'दूर' में से किसी एक को ही रखना उचित होगा. सादर.
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