ज़िंदगी को छलने लगी .....
गज़ब हुआ
एक चराग़ सहर से
शब की चुगली कर बैठा
एक लिबास
अपने ग़म की
तारीकियों से दरयाफ़्त कर बैठा
कोई करीबियों से
फासलों की बात कर बैठा
मैंने तो
तमाम रातों के चांद
उस पर कुर्बान कर दिए थे
अपने ग़मग़ीन पैरहन पर
हंसी के पैबंद सिल दिए थे
अपनी आंखों के हमबिस्तर को
मैं चश्मे साहिल पे ढूंढती रहा
नसीमे सहर से
उसका पता पूछती रही
उम्मीदों की दहलीज़
नाउम्मीदी की दीवारों से
बंद होने लगी
सांसें ज़िस्म को
बैसाखियों सी लगनी लगी
जिसको हयात समझी थी
वो बन के क़बा मौत की
ज़िंदगी को छलने लगी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
अादरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब प्रस्तुति मेंं निहित भावों को समर्थन देती अापकी अात्मीय स्नेहाशीष का तहे दिल से शुक्रिया।
बहुत खूबसूरत आ० सरना जी मैंने तो
तमाम रातों के चांद
उस पर कुर्बान कर दिए थे
अपने ग़मग़ीन पैरहन पर
हंसी के पैबंद सिल दिए थे
अपनी आंखों के हमबिस्तर को
मैं चश्मे साहिल पे ढूंढती रहा
नसीमे सहर से
उसका पता पूछती रही
अादरणीया राजेश कुमारी जी प्रस्तुति मे निहित भावों को सहमति देती अापकी अात्मीय प्रशंसा एवं सुझाव का हार्दिक अाभार।
मैंने तो
तमाम रातों के चांद
उस पर कुर्बान कर दिए थे
अपने ग़मग़ीन पैरहन पर
हंसी के पैबंद सिल दिए थे
अपनी आंखों के हमबिस्तर को
मैं चश्मे साहिल पे ढूंढती रहा
नसीमे सहर से
उसका पता पूछती रही--वाह्ह्ह्ह वाह्ह्ह्ह
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति लाजबाब आद० सुशील सरना जी ढेरों बधाई लीजिये
बैसाखियों सी लगनी लगी ---बैसाखियाँ सी लगने लगी --कर लीजिये
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