जीने का अंदाज़ .....
अचानक क्या हुआ
हम बेआवाज़ हो गए
हमारे ही लम्हे
हमसे नाराज़ हो गए
कुछ भी तो न था
हमारे दरमियाँ
फिर भी सीने में
हज़ारों राज़ हो गए
हसरतें
लबों की दहलीज़ पर
दम तोड़ती रही
गर्म सांसें
लावे की तरह
राहे उल्फ़त में
एक जुगनू सी उम्मीद लिए
दौड़ती रहीं
हम दोनों के बीच में
क्या है शेष
जो हमको बांधे है
क्यों हम दोनों की आंखें
सागर में नहाई हैं
देखो ! उन अधजले चरागों
धुंआ बाकी है
इस नाराज़ शब् की
सहर अभी बाकी है
क्या सच में हम
इक दूसरे से नाराज़ हैं ?
यदि हां !
तो हमारे गालों पर
ये खारे सागर के निशाँ क्यूँ हैं ?
इन आँखों में
उम्मीदे आफताब की सुर्खियां क्यूँ हैं ?
शायद हमारी तिश्नगी ही
हमें करीब लाएगी
ये नाराज़गी की हद
तोड़ जाएगी
हमारी खामोशियों को
जीने का
अंदाज़ दे जाएगी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया राहिला जी प्रस्तुति में निहित भावों पर आपकी ऊर्जा देती स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय रामबली गुप्ता जी प्रस्तुति में निहित भावों को सहमति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीया राजेश कुमारी जी प्रस्तुति में निहित भावों को सहमति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।
क्या सच में हम
इक दूसरे से नाराज़ हैं ?
यदि हां !
तो हमारे गालों पर
ये खारे सागर के निशाँ क्यूँ हैं ?
इन आँखों में
उम्मीदे आफताब की सुर्खियां क्यूँ हैं ?आह्ह्ह
भावना प्रधान प्रस्तुति दिल छू गई बहुत बहुत बधाई आद० सुशील सरना जी
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