पथरीली ज़मीन ....
जाने क्यूँ
आजकल आईना
ख़फ़ा ख़फ़ा रहता है
चुपके चुपके
अजनबी सूरत से
जाने क्या कहता है
अब ख़ुद से मुझे
इक दूरी नज़र आती है
दूर कोई परछाईं
अधूरी नज़र आती है
कभी ये नज़र का धोखा
नज़र आता है
कभी कोई जा जा के
लौट आता है
क्यों ये बेसब्री ओ बेकरारी है
किसके लिए आँखों ने
तारे गिन गिन रात गुज़ारी है
मैं अपने साथ
कहां कुछ लाया था
उसकी याद
उसी मोड़ पे छोड़ आया था
किसे देखता मुड़ के मैं
जाने वाला इक फरेबी साया था
फिर क्यों कोई हर लम्हा
मेरे ज़हन में करवटें लेता है
मेरे लबों पे
अपने लम्स छोड़ देता है
चश्मे-नम
हर भरम तोड़ देती है
किसी की याद
रूह में तड़प छोड़ देती है
मैं
आईने में
तन्हा सा रह जाता हूँ
फिर धीरे धीरे बीते लम्हों में
ख़ुद को समेट
हकीकत की
पथरीली ज़मीन पर
लौट आता हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीया प्रतिभा जी प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय सराहना का हार्दिक आभार।
आदरणीया राहिला जी ये आपकी सहृदयता है कि आप सृजन के भावों को इतना मान देती हैं। प्रस्तुति की आत्मीय सराहना के लिए दिल से शुक्रिया।
आदरणीय सतविंदर जी प्रस्तुति की आत्मीय सराहना का दिल से आभार।
आदरणीय हर्ष महाजन जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
फिर धीरे धीरे बीते लम्हों में
ख़ुद को समेट
हकीकत की
पथरीली ज़मीन पर
लौट आता ह..... बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति है मेरी हार्दिक बधाई लीजिये आदरणीय सुशील सरना जी
मैं अपने साथ
कहां कुछ लाया था
उसकी याद
उसी मोड़ पे छोड़ आया था.........अति सुंदर !1
आ० Sushil Sarna जी इस सुंदर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई !!
सादर !!
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