२२१२ २२१२ २२
हमने यहीं पर ये चलन देखा
हर गैर में इक अपनापन देखा
देखी नुमाइश जिस्म की फिरभी
जूतों से नर का आकलन देखा
हर फूल ने खुश्बू गजब पायी
महका हुआ सारा चमन देखा
लिक्खा मनाही था मगर हमने
हर फूल छूकर आदतन देखा
उस दम ठगे से रह गए हम यूँ
फूलों को भँवरों में मगन देखा
होती है रुपियों से खनक कैसे
हमने भी रुक-रुक के वो फन देखा
रोशन चिरागों के तले देखे
गलता हुआ बेबस बदन देखा
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीया राहिला जी सादर, गजल पर मेरा प्रयास आपको अच्छा लगा मेरा रचनाकर्म सफल हुआ. सादर आभार.
आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब आपसे मिली सराहने से प्रस्तुति को संबल मिला. सादर आभार.
प्रस्तुत गजल पर उत्साहवर्धन के लिए दिल से आभार आदरनीय रवि शुक्ला साहब. सादर.
गजल को सराहने के लिए बहुत-बहुत आभार आदरणीय जयनित कुमार मेहता जी. सादर.
देखी नुमाइश जिस्म की फिरभी
जूतों से नर का आकलन देखा -- क्या बात है , आ. अशोक भाई , मेरे दिल की बात कह दी आपने । गज़ल भी खूब कही है , हार्दिक बधाई आपको ।
आदरणीय अशोक जी, अच्छी गजल कही आपने बधाइ स्चीकार करें ।
भाई शिज्जु 'शकूर' जी सादर, आप से तारीफ़ का संबल मिला. प्रस्तुति सफल हुई. सादर आभार.
आदरणीय महेंद्र कुमार जी सादर प्रस्तुत गजल पर उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत आभार. आप मतले की बात कर रहे हैं मगर भाई यहाँ तो सब अपने ही हैं. सादर.
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