"अरी विभा देख जरा वहां"बस के आगे जा रहे वाहन की ओर इशारा करके सुधा बोली।
"क्या दिखाना चाह रही हो ,वो ट्रॉली?"
"हाँ,क्या ऐसा नहीं लग रहा उसे देख कर, जैसे सैकड़ो नन्हें मुन्ने नर्सरी के बच्चे पहली बार विद्यालय वाहन में सवार हो,झूमते ,गाते ,तालियाँ बजाते चले जा रहे हों।"
"फिर दौड़ाये तूने कल्पना के घोड़े"
"तो तू भी दौड़ाकर देख ,एक बार मेरी तरह।"
सुधा द्वारा चित्रित किये दृश्य को जब उसने ,उसकी नज़र से देखा तो भाव विभोर होकर बोली।
"कसम से सुधी! ये नर्सरी वाहन में वृक्षारोपण के लिये जा रहे नन्हे पौधे ,हवा के साथ अठखेलियां करते वाकई मासूम बच्चों से लग रहे हैं।"
"बच्चे किसी के भी हों ,सुन्दर लगते हैं ना! एक जमाना था जब हर घर के आँगन या बाड़े में इन बच्चों से खूब रौनक हुआ करती थी।"
"हाँ गाँव में तो अभी भी ग़नीमत है, लेकिन शहर में तो अब हर तरफ बाँझ निवास दिखाई देते हैं।"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय प्रतिभा दीदी!बहुत, बहुत आभार ।सादर नमन
पेड़ों से दूर होते जा रहे शहरी जीवन को अच्छा नाम दिया है , बधाई प्रेषित है आपको इस रचना पर प्रिय राहिला जी
आदरणीय रवि सर जी!आपकी स्नेहिल टिप्पणी ने मेरी दुविधा का निदान कर दिया ।बहुत, बहुत शुक्रिया ।सादर
बहुत, बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज सर जी!आपकी टिप्पणी और आपकी रचना पर उपस्थिति देख कर मन उत्साह से भर गया।सादर नमन
बहुत बढ़ीया आदरणीय राहिला जी ! /लेकिन शहर में तो अब हर तरफ बाँझ निवास दिखाई देते हैं।/ एक सामान्य सी दिखने वाली लघुकथा की यह पंक्ित अंदर तक हिला देना का माद्दा रखती है । प्रकृति से विमुख शहरों की स्िथती को इससे उत्तम कोई उपमा नहीं दी जा सकती । कथा का स्टीक शीर्षक चयन सराहनीय है । बधाई स्वीकारें ।
आदरणीया राहिला जी , छोटे छोते पौधों मे बच्चों को देखना , अच्छा लगा । पर्यावरण की दृष्टि से ये सही भी है । लघुकथा के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
बहुत शुक्रिया आदरणीय महेंद्र सर जी!आप ने रचना पसंद की सादर आभार ।
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