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ग़ज़ल: पास रह कर भी न हम तेरे हुए.

2122-2122-212

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

 

झूठ की बुनियाद पर रिश्ते हुए,

ख़त्म सारे वास्ते उस से हुये.

 

बेवजह तुमने  मिटाईं दूरियां,

पास रह कर भी न हम तेरे हुए.

 

गाल पर गिर कर भी जो लहरा रहे,

हर नज़र में कान के झुमके हुए.

 

जिंदगी से आज भी उम्मीद है,

हम नहीं रहते हैं अब सहमे हुए.

 

आपसे अक्सर  सुना मैंने  सनम

चार दिन की चांदनी कहते हुए

 

है मुखौटा आदमी का आज कल,

रुख के ऊपर दूसरा ओढ़े  हुए.

.

(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Samar kabeer on July 24, 2016 at 3:50pm
सबसे पहले तो जवाब देर से देने के लिये माज़रत चाहता हूँ,कारण,तबीयत ख़राब थी और दूसरी समस्या ये कि नेटवर्क भी नहीं मिल रहा था।
ऐब-ए-तनाफुर उसे कहते हैं कि किसी शब्द का आख़री अक्षर और उसके बाद के शब्द का पहला अक्षर एक हों,जैसे आपके मिसरे में "उस से" 'स'पे खत्म 'स'से शुरू,उम्मीद है आपने समझ लिया होगा ।
Comment by Samar kabeer on July 24, 2016 at 3:49pm
सबसे पहले तो जवाब देर से देने के लिये माज़रत चाहता हूँ,कारण,तबीयत ख़राब थी और दूसरी समस्या ये कि नेटवर्क भी नहीं मिल रहा था।
ऐब-ए-तनाफुर उसे कहते हैं कि किसी शब्द का आख़री अक्षर और उसके बाद के शब्द का पहला अक्षर एक हों,जैसे आपके मिसरे में "उस से" 'स'पे खत्म 'स'से शुरू,उम्मीद है आपने समझ लिया होगा ।
Comment by Abha saxena Doonwi on July 21, 2016 at 3:09pm

आदरणीय Samar Kabeer जी  नमस्कार ,आपकी  प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका .....मुझे शुतरगुरबा  दोष के  बारे में तो  मालूम  है पर ऐब-ए-तनाफुर दोष के बारे  में नहीं जानती हूँ ..कृपया जानकारी दीजिये ..शुक्रिया .....

Comment by Samar kabeer on July 20, 2016 at 6:27pm
मोहतरमा आभा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुवा है, दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
मतले में ऐब-ए-तनाफुर का दोष है,
दूसरे शैर में शुतरगुरबा का दोष है, देखिएगा ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on July 20, 2016 at 4:55pm
उम्दा ग़ज़ल आदरणीयाआदरणीया आभा सक्सेना जी।हार्दिक बधाई।
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 20, 2016 at 1:39pm

बेवजह तूने मिटाईं दूरियां,

पास रह कर भी न हम तेरे हुए..........वाह ! बहुत खूब.

आदरणीया आभा सक्सेना जी सादर, बहुत उम्दा गजल कही है. बहुत-बहुत बाधाई स्वीकारें. सादर.

Comment by Abha saxena Doonwi on July 20, 2016 at 6:21am

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपने  मेरी इस ग़ज़ल पर अपनी प्रतिक्रिया  दी  इस के लिए मैं आपका हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ शुक्रिया .....:)

Comment by Abha saxena Doonwi on July 20, 2016 at 6:20am

आदरणीय सुशील सरना जी आपने  मेरी इस ग़ज़ल पर अपनी प्रतिक्रिया  दी  इस के लिए मैं आपका हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ शुक्रिया .....:)


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 19, 2016 at 6:45pm

आदरणीया आभा की , अच्छी ग़ज़ल कही आपने , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

Comment by Sushil Sarna on July 19, 2016 at 4:51pm

आपसे अक्सर सुना मैंने सनम
चार दिन की चांदनी कहते हुए

है मुखौटा आदमी का आज कल,
रुख के ऊपर दूसरा ओढ़े हुए.

वाह बहुत सुंदर अहसासों की ग़ज़ल ... हार्दिक हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर।

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