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गदहा अन्दर हो जाये, तैयारी है
धोबी का रिश्ता लगता सरकारी है
वो बयान से खुद साबित कर देते हैं
जहनों में जो छिपा रखी बीमारी है
बात धर्म की आ जाये तो क्या बोलें ?
समझो भाई ! उनकी भी लाचारी है
बम बन्दूकें बहुत छिपा के रक्खे हैं
अभी फटा जो, वो केवल त्यौहारी है
सरहद कब आड़े आयी है रिश्तों में
हमसे क्यूँ पूछो, क्यूँ उनसे यारी है ?
कभी फटा था धरती का सीना लेकिन
खूँ रिसना अब तक सीने से जारी है
तू जाने तेरी किताब की परिभाषा
मेरी किताब में लिक्खा है, गद्दारी है
अपनी माँ को माँ कहने की चाहत भी
मक्कारों को लगती है , मक्कारी है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
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गदहा अन्दर हो जाये, तैयारी है
धोबी का रिश्ता लगता सरकारी है
वो बयान से खुद साबित कर देते हैं
जहनों में जो छिपा रखी बीमारी है
वाह वाह और वाह ... हकीकत को बयां करते अशआर ... इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब।
बम बन्दूकें बहुत छिपा के रक्खे हैं
अभी फटा जो, वो केवल त्यौहारी है.......वाह ! बहुत खूब.
आदरणीय गिरिराज भंडारी सादर सादर नमन, बहुत सुंदर गजल कही है. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. सादर.
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