किसको पूजूँ
किसको छोड़ूँ
सब में मिट्टी है भारत की
पीली सरसों या घास हरी
झरबेर, धतूरा, नागफनी
गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची
है फूलों में, काँटों में भी
सब ईंटें एक इमारत की
भाले, बंदूकें, तलवारें
गर इसमें उगतीं ललकारें
हल बैल उगलती यही जमीं
गाँधी, गौतम भी हुए यहीं
बाकी सब बात शरारत की
इस मिट्टी के ऐसे पुतले
जो इस मिट्टी के नहीं हुए
उनसे मिट्टी वापस ले लो
पर ऐसे सब पर मत डालो
अपनी ये नज़र हिकारत की
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(मौलिक एवं अप्रकाशित))
Comment
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय सौरभ जी, मार्गदर्शन के लिए विशेष आभारी हूँ।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेश जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया प्रतिभा जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण ही
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय जयनित जी
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय कल्पना जी
गीति-काव्य पर आपकी इस प्रस्तुति से हमारे जैसे पाठक के मन में उछाह और उत्साह का संचार हुआ है आदरणीय धर्मेन्द्र जी. हार्दिक शुभकामनाएँ और अशेष बधाइयाँ ..
वैसे, नवगीत, या गीत ही, के संदर्भ में भावबोध और भाव-आवृति का संदर्भ लेना आवश्यक होगा. तात्पर्य यह है कि, भावबोध के संप्रेषण के क्रम में भाव-आवृति में निरंतरता को बनाये रखना गीति-प्रतीति की प्रस्तुतियों के हिसाब से रचनात्मक कर्म है. इस पर आदरणीय अवश्य ध्यान रखें.
सादर
भाले, बंदूकें, तलवारें
गर इसमें उगतीं ललकारें
हल बैल उगलती यही जमीं
गाँधी, गौतम भी हुए यहीं
बाकी सब बात शरारत की.....वाह बहुत खूब ..हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी
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