22 22 22 22 22 22
कैसे दुर्योधन को कोई मोहन कह ले
और सुदामा मित्र बने तो, दुश्मन कहले
मुझको तेरी बाहों का घेरा जन्नत है
मेरी बाहों को चाहे तू बन्धन कह ले
मै रातों को चीख, नींद से उठ जाता हूँ
तू समझे तो इसको मेरी तड़पन कह ले
अब केवल कंक्रीट दिखेंगे शहर नगर में
बन्द आँख कर तू इसको ही मधुबन कह ले
विष ही वमन किया हर पत्ता, हवा चली जब
तू उन बीजों को बोया, तू चंदन कह ले
नज़र दीठ से तुझे बचाने धागा बांधा
लगे कलाई तेरी उसको कंगन कह ले
आँचल की छावों में तू ने पाला जिसको
है तो पतझर, लेकिन चल तू सावन कह ले
तू ही नापा, तू ही तौला तेरे वाचक
तेरी चेनल, तू छब्बिस को बावन कहले
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
गिरिराज जी बहुत सुन्दर गजल हुई है।
आदरणीय समर भाई सही कह रहे हैं। नगर और शहर एक ही हैं। इसके लिये डिक्शनरी की जरूरत नहीं है, लोक मान्यता डिक्शनरियों से अधिक वजनदार होती है।
इसे ‘नगर-नगर’ या ‘शहर-शहर’ किया जा सकता है।
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय समर भाई , नगर का अर्थ - डिक्सनरी मे दिया है , गाँव और कस्बे से थोड़ा बड़ा , जहाँ विभिन्न जातियों के लोग रहते हैं । शहर नही दिया है - तो मुझे ऐसा लगता है कि शहर और कस्बे के बीच कोई अर्ध विकसित सी जगह होनी चाहिये ।
अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय गिरिराज जी, दाद कुबूलें
आदरनीय आशुतोष भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय समर भाई , शहर और नगर का भेद मेरी स्वयँ की सोच है , इसका आधार स्व. दुश्यनत कुमार जी की ग़ज़ल है , जिसमे उन्होने शहर लिया , नगर नही । हो सकता है ये आधारहीन भी हो ।
आदरणीय नादिर खान भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया आपका ।
आदरणीय गिरिराज भाई साब ..इस उम्दा ग़ज़ल पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर प्रणाम के साथ
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