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पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ?
होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?
हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख..
किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ?
सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा
कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !
जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ?
क़ातिल तरेर आँख.. जताता है दोस्ती..
ऐसे में कौन कण्ठ ही होगा मुखर कहाँ ?
अहसास ही सवाल थे अहसास ही ज़वाब
’रक्खी है आज लज्जत-ए-दर्द-ए-जिगर कहाँ !’
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
क़ातिल तरेर आँख.. जताता है दोस्ती..
ऐसे में कौन कण्ठ ही होगा मुखर कहाँ ?
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति , बधाई , आदरणीय सौरभ पांडेय जी , सादर।
आदरणीय समर साहब, आप एक पाठक हैं। आप किसी रचना को जैसे चाहे देखें। अलबत्ता, इस गहन पाठकीयता के ऊपर बहुत जिम्मेदारी भी होती है। यह अवश्य है कि हर किसी का अपना अंदाज़ होता है। हर भाषा की अपनी खूबसूरती होती है। बाकी, शुभ शुभ
आदरणीय समर साहब, आपसे मिला अनुमोदन वाकई आश्वस्तिकारी है. आपकी समझ के कायल तो इस मंच पर सक्रिय सभी सदस्य हैं. आपका सादर धन्यवाद.
साथ ही, आपने प्रति शेर अपनी बातें कहने के क्रम में कुछ प्रश्न भी उठाये हैं. यह एक जागरुक पाठकीयता का सुन्दर उदाहरण है. इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष यह मंच चर्चाओं और तार्किक संवादों को प्रश्रय देता रहा है. इस मंच की खुसूसियत भी यही है.
इस परिप्रेक्ष्य में एक और बात, सुधी पाठक के कहे पर एक लेखक के तौर पर अपनी बातें कहना सफाई के तौर पर नहीं ली जानी चाहिए. बल्कि पारस्परिक समझ के आदान-प्रदान की तरह लिया जाना चाहिए. और, जो-जो विन्दु सर्वोचित हो कर उभरें, उन्हें स्वीकार कर संदर्भित रचना में सुधार करना चाहिए.
//लेकिन अगर इसे उर्दू लिपि में लिखेंगे तो ईताए जली //
इसका भान मुझे भी है, आदरणीय. लेकिन मैं उर्दू लिपि में क्यों लिखने लगा ? या, मैं उर्दू भाषा में ही रचनाकर्म कहाँ करता हूँ ? आदरणीय, वैसे लिपि और भाषा तो दो विन्दु हैं. यह चर्चा हेतु एक व्यापक विन्दु है. आजकल उर्दू भी देवनागरी लिपि में लिखी जाने लगी है. भले ही वहाँ भी उर्दू को निभाने या बरतने के लिए उर्दू लिपि की ही कसौटी रखी जाती है. इसी कारण वह हिन्दी नहीं हो जाती. दोनों भाषाएँ व्याकरण के तौर पर तो नहीं, परन्तु, प्रवृति और प्रकृति की कसौटी पर दो भाषाएँ अवश्य हैं.
//एक ही मिसरे में दो सवाल हो गये ? //
एक पंक्ति में दो प्रश्नों का होना क्यों या कैसे कोई व्याकरणीय अशुद्धि हो सकती है, यह मुझे एकदम से समझ में नहीं आया. इससे क्या फर्क पड़ता है कि एक पंक्ति में एक प्रश्न है या एक से अधिक ?
’इस’ कोठरी एक अच्छा विकल्प हो सकता है. लेकिन उसकी अपनी एक विशिष्ट सीमा है. अर्थात वह मात्र ’एक कोठरी’ को इंगित करता है. ’किस’ ’एक से अधिक कोठरी’ के निरुपण का पर्याय है. क्या एक से अधिक कोठरी वाले को ’तिल-तिल मरने’ की अनुभूति नहीं होती ? या, वो शख़्स अपने माज़ी के उत्साह और समृद्धि के प्रतीक ’शम्सो-क़मर’ के ऊपर सिर नहीं धुन सकता ? इस सवाल को मेरा नम्र आवेदन समझियेगा.
//ऊला मिसरे में मफ़ूम उलझ रहा है,'कहाँ द्रोपदी कहीं',यहाँ भी इस मिसरे में 'कहाँ' शब्द भर्ती का है //
आपके उपर्युक्त कहे पर आदरणीय, जाने क्यों मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि आप ’कृष्ण’ और ’द्रौपदी’ के प्रतीकों को उन्हीं संदर्भों में ले नहीं पाये हैं. वे दो इकाइयाँ ही नहीं, आदरणीय, दो संदर्भों का भी निरुपण हैं. अतः, मेरा सादर आग्रह है कि आप इस शेर के बरअक्स पुनः अपनी बात रखें, तभी मैं कुछ कहने की स्थिति में हो सकता हूँ.
इसी क्रम में उदाहरण हेतु एक व्याकरण सम्मत वाक्य - ऐसी लड़कियाँ आज कहाँ कहीं है ?
इस वाक्य में ’कहाँ’ और ’कहीं’ में से कौन-सा भर्ती का है ?
आपके ग़ज़ल-संग्रह ’गुल’ में इसी ज़मीन पर सम्मिलित ग़ज़ल को अवश्य देखूँगा. प्रस्तुत हुआ मक्ता कमाल का है. ’समर’ शब्द का सुन्दर प्रयोग हुआ है. यही तो ’यमक अलंकार’ का उदाहरण है.
आपकी उपस्थिति से रचना समृद्ध हुई है. आदरणीय. सादर धन्यवाद.
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय सतविन्द्र जी, हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय सुशील सरनाजी, प्रस्तुति को अनुमोदित करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानीजी, आपको प्रस्तुति विचारोत्तेजक लगी इस हेतु हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी, हार्दिक धन्यवाद
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