2122 2122 2122 212
एक दीये का अकेले रात भर का जागना..
सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना !
सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच
फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !
फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है
क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।
राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?
सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !
क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी
दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना ।
हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह
वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना ! [ताज़ीम - इज़्ज़त, आदर
आज के हालात पर कल वक़्त जाने क्या कहे ?
किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना !
*************
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिली दाद कुबूल करें आदरणीय सौरभ जी
आपके अनुमोदन से उत्साहित हुआ हूँ, आदरणीय रवि शुक्ल जी. हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय विजय शंकरजी, आपने जो कुछ ग़िफ़्ट को लेकर कहा है, वस्तुतः उक्त शेर का वही भाव है. कि बाज़ार गिफ़्ट की औकात तय करने लगा है, न कि मन की भावनाएँ तय कररही हैं.
आदरणीय गिरिराज भाई जी. आपके मुखर अनुमोदन केलिए हार्दिक धन्यवाद.
//बेडरूम क्या ड्राइंग रूम क्या , हर जगह बाज़ार जागृत है //
बेड-रुम को जानबूझ कर प्रायरिटी दी गयी है, आदरणीय.
आज के दौर के सक्रिय युवक-युवतियों की ज़िन्दग़ी में बेड-रुम के बिस्तर पर देर-देर रात तक लाल-लाल आँखें लिये लगातार बँधती जाती भोली हिचकियों के कई बार कारण ये ग़िफ़्ट ही हुआ करते हैं जो अपनी क़ीमत के कारण संतुष्ट ही नहीं कर पाते. आज ग़िफ़्ट के पीछे का भाव नहीं, ग़िफ़्ट के ऊपर का प्राइस-टैग अधिक महत्त्वपूर्ण हो चला है. .. :-))
//अब भी जग रहे हैं आदरनीय , आपको पता नही //
अब कोई मुग़ालता बाकी नहीं है, आदरणीय. न वास्तविक दुनिया में, न ही आभासी दुनिया में.. ...
सब देख लिया.
सादर
आदरनीय सौरभ भाई , मतला ता मक्ता सभी अशआर बेहतरीन कहन का उदाहरण है। कुछ शेर बहुत पसंद आये आदरणीय -
फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है
क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना । रोज देख रहे हैं , आदरणीय
क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी
दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना । बहुत खूब , बेडरूम क्या ड्राइंग रूम क्या , हर जगह बाज़ार जागृत है
हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह
वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना ! अब भी जग रहे हैं आदरनीय , आपको पता नही ... हा हा हा ,,
आज के हालात पर कल वक़्त जाने क्या कहे ?
किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना !- सच है आदरनीय , इसी जागने से, अभी उम्मीद भी बाक़ी है
हार्दिक बधाइयाँ आदरनीय , गज़ल के लिये ।
उत्साहवर्द्धन केलिए सादर धन्यवाद, आदरणीय विजयशंकर जी.
हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय नवीन जी.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online