२२१ २१२१ १२२१ २१२
पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ?
होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?
हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख..
किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ?
सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा
कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !
जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ?
क़ातिल तरेर आँख.. जताता है दोस्ती..
ऐसे में कौन कण्ठ ही होगा मुखर कहाँ ?
अहसास ही सवाल थे अहसास ही ज़वाब
’रक्खी है आज लज्जत-ए-दर्द-ए-जिगर कहाँ !’
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?
सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा
कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !
जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ?
वाह बहुत खूब बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय
आदरणीय सौरभ भाई , बेहतरीन मतला से शुरु हुआ सफर बेहतरीन गिरह पर खत्म हुआ है , क्या बात है । दिल से मुबारक बाद स्वीकार करें इस ग़ज़ल के लिये ।
बाक़ी प्रतिक्रियाओं के पढने के बाद मै तो यही कहूँगा कि मुझे इंगित शेर मे कहीं कोई कमी नही दिखी । बहर , अरूज , व्याकरण , भाषा और कहन सही होने के बाद शेर पर कहने के लिये कुछ बचता कहाँ है ? जहाँ तक कहन की बात है, तो कहन में सम्भावनायें तो हमेशा बनी ही रहतीं हैं , हर पाठक अपनी अपनी सोच से संभावानायें व्यक्त भी कर सकता है ।
किस कोठरी और इस कोठरी - पर भी मै आपसे सहमत हूँ , किस कोठरी कहने में विस्तार पा रही है कहन ।
और राबता समझ न आना कहन की जगह पाठक की समझ की कमी भी हो सकती है , शायद शम्सो-क़मर को सीधे अर्थों मे ले रहे हों ?
पूरी ग़ज़ल के लिये आपको पुनः बधाइयाँ ।
आदरणीय तस्दीक अहमद साहब, आप ग़ज़ल पर आये इसकी प्रसन्नता हमें भी है. हार्दिक धन्यवाद. आपके प्रश्न या आपकी शंका के बरअक्स फिर से सोचूँगा.
शुभ-शुभ
प्रोत्साहन हेतु हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया राजेश कुमारी जी..
मोहतरम जनाब सौरभ साहिब, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---शेर नंबर 3 के ऊला और सानी मिसरे में तालमेल की कुछ कमी लग रही है देख लीजियेगा -----
जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ?
क़ातिल तरेर आँख.. जताता है दोस्ती..
ऐसे में कौन कण्ठ ही होगा मुखर कहाँ ?
बहुत सुन्दर अशआर हुए आदरणीय सौरभ जी अच्छी ग़ज़ल के लिए दाद कुबूलें
आप ही को क्यों आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, अबतक इसे पढ़ चुके हर एक पाठक को यह प्रस्तुति अच्छी ही लगी है. ओबीओ का यह पटल पर किसी रचना केलिए ’अच्छा से बहुत अच्छा’ करने के लिए उचित और सार्थक माहौल प्रदान करने का काम करता है. यह अवश्य है कि कई बार इस माहौल के कारण ही हम कुछ ऐसी बातें भी कहते-करते रहते हैं जो उक्त रचना के लिए तो नहीं होती, बल्कि उसके अलावा हुआ करती हैं. और, दूसरे पाठकों के लिए मार्गदर्शक की तरह होती हैं.
शुभ-शुभ
आदरणीय विजय शंकर जी, सादर आभार..
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