22 22 22 22 22 22 22 22 -- बहरे मीर
छोटी मोटी बातों में वो राय शुमारी कर लेते हैं
और फैसले बड़े हुये तो ख़ुद मुख़्तारी सर लेते हैं
वहाँ ज़मीरों की सच्चाई हम किसको समझाने जाते
दिल पे पत्थर रख के यारों रोज़ ज़रा सा मर लेते हैं
चाहे चीखें, रोयें, गायें फ़र्क नहीं उनको पड़ता, पर
जैसे बच्चा कोई डराये , वालिदैन सा डर लेते हैं
कल का नीला आसमान अब रंग बदल कर सुर्ख़ हुआ है
पंख नोच कर सभी पुराने, चल बारूदी पर लेते हैं
वैसे तो ईमान सभी के खून पसीने में है शामिल
लेकिन गंगा भ्रष्ट बही तो वो भी थोड़ा तर लेते हैं
कहीं कहीं सूराखें ताज़ा दिखते तो हैं आसमान में
शायद सच हो ! चल हाथों में हम भी कुछ पत्थर लेते हैं
उख़ड़ी सांसे काबू करने जिस जा रुकती है पगड़ंडी
वहीं कहीं वीरान ज़मीं पे आ चल अपना घर लेते हैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीया राहिला जी , गज़ल पर उपस्थिति , और सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय मनन भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
कहीं कहीं सूराखें ताज़ा दिखते तो हैं आसमान में
शायद सच हो ! चल हाथों में हम भी कुछ पत्थर लेते हैं.... आपकी रचनाओं के भाव बहुत गहरे होते हैं आदरणीय .. बधाई स्वीकार करें इस रचना पर ...सादर
आदरनीय समर भाई , सुखन नवाज़ी और दादो तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
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