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इसे कहते हैं सुख़न फहमी,फ़न की दाद देना भी कोई आपसे सीखे,आप का हुक़्म सर आँखों पर हुज़ूर-वाला ।
//फ़िलबदीह कहने का कारण ये है कि तरही मुशायरे के अंतिम चरण में ये ग़ज़ल हुई,इसलिये कह दिया //
अब से ख़बरदार साहब, कभी जो आपने इत्मिनान से ग़ज़लग़ोई की ! आप ऐसे ही फ़िलबदीह करते रहें और हमें मुतस्सिर करते रहें.
शुभ-शुभ
आदरणीय समर साहब ! जय हो.. ! आपकी ग़ज़ल पर बस इतना ही कहना मुनासिब होगा, उस्तादों की कही ग़ज़लों से ग़ज़लें सीखी जाती हैं. उन पर तब्सिरा नहीं किया जाता.
सही कहा आपने साहब ! --
ज़रा सीखिये सलीक़ा,नहीं खेल क़ाफ़िए का
वो ग़ज़ल भी क्या ग़ज़ल है जो कलाम तक न पहुँचे
निर्दोष पंक्तियों और मानीख़ेज़ अश’आर से धनी इस ग़ज़ल को आप जाने क्यों इसे फिल्बदी ग़ज़ल कह रहे हैं.
सलाम सलाम सलाम !
और, हुज़ूर, काश ये शेर मेरा होता -
थे ख़ुदा परस्त जितने,वो ख़ुदा से दूर भागे
जो थे राम के पुजारी,कभी राम तक न पहुँचे
इस ग़ज़ल के हवाले से हम इस सिम्फ़ के कुछ और जानकार हुए.
शुभ-शुभ
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह .......आदरणीय सर बहुत सुन्दर और प्रभावशाली ग़ज़ल । हार्दिक बधाई ।
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