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आदरणीय सतविन्दर जी, आपके पयास प्रसन्नता होती है. इस प्रस्तुति केलिए भी हार्दिक शुभकामनाएँ ..
दिग्पाल छ्न्द वस्तुतः ऐसा मात्रिक छन्द है जिसका पाँचवीं, आठवीं, सत्रहवीं और बीसवीं मात्रा का लघु होना अनिवार्य है. अन्य गुरु मात्राएँ या वर्ण वाचिक परम्परा के गुरु होते हैं जहाँ शब्दकलों के हिसाब से दो लघु समवेत उच्चारित हों तो गुरु का आभास देते हैं. जैसे ’कमल’ शब्द में ’मल’ दो लघु होने के बावज़ूद उच्चारण के अनुसार गुरुवत आचरण करता है. ऐसा हर मात्रिक छन्द में नहीं होता लेकिन गीतिका और हरिगीतिका इस तरह के छन्दों के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं.
कुछ स्थानों पर शब्दों को सुधार कर प्रयोग करने से रचना की संप्रेषणीयता तो बढ़ेगी ही, गेयता भी बढ़ी लगेगी. भाव और शब्द आपही के हैं, लेकिन थोड़ा बदलाव के साथ पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ -
यथा,
हाँ, प्रेम है तुम्हीं से,मनमीत मान लो तुम
चाहत हमें तुम्हीं से, ये बात जान लो तुम
क्यों छोड़ चल दिए हो,मँझधार में मुझे तुम
मुख मोड़ चल दिये हो, तज धार में मुझे तुम
मुश्किल हुआ विरह अब,ये पल बिता न पाऊँ
साथी बिना तुम्हारे, किस ओर पग बढ़ाऊँ
जो होंठ पर टिका है, इक नाम है तुम्हारा
अब याद ही तुम्हारी, प्रीतम मुझे सहारा
ये प्रेम का रतन ही, मुझको सुहा रहा है
सुन्दर चमक लिए जो, मन को लुभा रहा है
प्रीतम नहीं तुम्हारा, यों साथ संग मेरे
पर प्रेम का रहेगा, हर हाथ संग मेरे
तुम साथ ही रहो ये, चाहत नहीं हमारी
हाँ प्यार हो तुम्हारा, दुनिया वहीं हमारी
अब याद ही तुम्हारी, जब एक है सहारा
ये भी जुदा अगर हो, होगा नहीं गवारा
शुभ-शुभ
आदरनीय सतविन्द्र भाई , भाव पूर्न प्रस्तुति के लिये हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
छंदों पर खूब प्रयास चल रहा है आपका और हर प्रयास पहले से ज़्यादा , 'वाह' होता जा रहा है ... बधाई और शुभ कामनाएँ आपको
ये प्रेम का रतन ही,मुझको सुहा रहा है
सुन्दर चमक लिए ये,मन को बहा रहा है
प्रीतम नहीं तुम्हारा,अब साथ संग मेरे
पर प्रेम का रहेगा,बस हाथ संग मेरे
बहुत सुंदर प्रस्तुति। .... प्रेमवियोग रस की इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय सतविन्द्र जी।
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