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अस्पष्ट रचना हुई है आदरणीय शहजाद भाई | सदर |
कुछ और समय चाहिए था इस रचना को आदरणीय , शायद आप ये कहना चाह रहे हैं कि आदमी के अन्दर एक दूसरे के प्रति भरोसा नहीं बचा है और धर्म भी पथ प्रदर्शक ना बनकर बस पाबंदियां लगाने वाला ताला बन रहा है ...
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