तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें
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ये रिश्ते भी न बदतर होके लौटें
तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें
ये चट्टानें , न ऐसा हो कि इक दिन
मैं टकराऊँ तो कंकर हो के लौटें
इसी उम्मीद में कूदा भँवर में
मेरे ये डर शनावर हो के लौंटें
बनायें ख़िड़कियाँ दीवार में जब
दुआ करना, कि वो दर हों के लौटें
दिवारो दर, ज़रा सी छत औ ख़िड़की
मै छोड़ आया कि वो घर हो के लौटें
कुछ इक सूखी निगाहें ऐ ख़ुदा, मैं
रखूँ उम्मीद क्या , तर हो के लौटें ?
नहीं कुछ भी यक़ीं , पर भेजता हूँ
मेरे ये मसअले सर हो के लौटें
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय समर भाई , आपने बिलकुल सही बात कही , रदीफ पसीना निकलवा दिया था , मतले और एक दो शे र ए बाद फँसा हुआ महसूस कर रहा था , लगभग एक महीना लग गया इस गज़ल में ।
हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया आपका । टंकण की गलती सुधार लूँगा , ध्यान दिलाने के लिये शुक्रिया ।
आदरनीय आमोद भाई , उत्साहवर्धन और सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीया राजेश जी , सुखन नवाज़ी और हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।
आदरनीय तेज़ वीर भाई , हौसला अफज़ाई के लिये शुक्रिया आपका ।
बनायें ख़िड़कियाँ दीवार में जब
दुआ करना, कि वो दर हों के लौटें----बहुत सुंदर
बहुत खूब उम्दा ग़ज़ल हुई है आद० गिरिराज जी बहुत बहुत बधाई
हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी। बेहतरीन गज़ल।
ये चट्टानें , न ऐसा हो कि इक दिन
मैं टकराऊँ तो कंकर हो के लौटें |
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