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सोच करनी ही थी मंदार कभी-ग़ज़ल , पंकज

2122 1122 112

तू मेरा कब था अलमदार कभी
आँख कब तेरी थी नमदार कभी

शुक्रिया ज़ख्म नवाज़ी के लिए
और क्या माँगे कलमकार कभी

जिसे ख़ाहिश नशा ताउम्र रहे
उसे भाये न चिलमदार कभी

सोच कर एक शज़र ग़म में हुआ
जिस्म खुद का भी था दमदार कभी

मैं समंदर के ही मंथन को चला
सोच करनी ही थी मंदार कभी

मौलिक-अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 13, 2016 at 3:32pm
आदरणीय बाउजी सादर प्रणाम। टाइपिंग में #ख़्वाहिश# की जगह #ख़ाहिश# हो गया। यहाँ मात्रा तो वही रहेगी 22?
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 13, 2016 at 2:10pm

वाहह आदरणीय वाहह क्या कहने बहुत खूब

Comment by Sushil Sarna on September 12, 2016 at 5:11pm

तू मेरा कब था अलमदार कभी
आँख कब तेरी थी नमदार कभी

शुक्रिया ज़ख्म नवाज़ी के लिए
और क्या माँगे कलमकार कभी
वाह आदरणीय पंकज जी बहुत ही खूबसूरत अहसासों को आपने इस ग़ज़ल में पेश किया है। इस दिलकश पेशकश के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं से।

Comment by Samar kabeer on September 12, 2016 at 2:55pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
तीसरे शैर के ऊला मिसरे में सही शब्द है "ख्वाहिश"इस हिसाब से बह्र चेक कर लीजियेगा ।

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