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तुम मुझे मिल जाओगे ...

तुम मुझे मिल जाओगे ...

ये सृष्टि
इतनी बड़ी भी नहीं
कि तुम मेरी दृष्टि की
दृश्यता से
ओझल हो जाओ

असंख्य मकरंदों की महक भी
तुम्हारी महक को
नहीं मिटा सकती

तुम मेरी स्मृति की
गहन कंदरा में
किसी कस्तूरी गन्ध से समाये हो


सच कहती हूँ
तुम मेरे रूहानी अहसासों की
हदों को तोड़ न पाओगे

क्यूँ असंभव को
संभव बनाने का
प्रयास करते हो
अपने अस्तित्व का
मेरे अस्तित्व से
इंकार करते है

हाँ ! मानती हूँ
तुम भौतिक रूप से
मेरी बाहों की जद में नहीं
तुम मेरे स्पर्श की
परिभाषाओं की हद में भी नहीं
फिर भी
मेरी हर साँस

तुम्हारे वज़ूद को
महसूस करती है


तुम हर नफ़स
मुझमें समाये हो
मेरी रगों में
तुम लहू बन कर दौड़ते हो
भला कैसे
मेरे अस्तित्व से
खुद को जुदा कर पाओगे

तुम्हारी हर सांस
मेरी साँसों की धड़कन है
दुनिया का कोई शोर
तुम्हारी साँसों की आवाज़
मुझसे छीन नहीं सकता

तुम
मेरी बेइंतहा मुहब्बत की
वज़ह हो
नहीं जानती
ये दिल
किसको क़ज़ा देता है
ये
जीता है
या
जीने की सजा देता है


सच ! जानम
ये सृष्टि
मेरी मुहब्बत की दुनियां से बड़ी नहीं है
मेरी रूह को
तुम खुद से
न अलग कर पाओगे
किसी न किसे मोड़ पे
मैं तुम्हें
तुम मुझे मिल जाओगे

गुज़रे हुए लम्हों पे 

इक अश्क
तुम भी साथ मेरे बहाओगे

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on September 14, 2016 at 1:42pm

आदरणीय सुरेश जी रचना के मर्म को अपनी सहमति देती प्रशंसा के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया। 

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 14, 2016 at 11:55am
आदरणीय श्री सुशील सरना जी दो बदन एक जान वाली कहावत को सिद्ध करती रचना पर हार्दिक बधाई । सादर ।
Comment by Sushil Sarna on September 13, 2016 at 4:07pm

आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति के भावों को अपनी सहमति से अलंकृत करने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया। 

Comment by Samar kabeer on September 13, 2016 at 11:50am
जनाब सुशील सरना जी आदाब,हमेशा की तरह शानदार कविता लिखी है आपने,पंक्ति दर पंक्ति बधाई स्वीकार करें इस बढ़िया प्रस्तुति पर ।

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