रिश्तों को समझ जाएगी ...
न आवाज़ हुई
न किसी ने कुछ महसूस किया
इक जलजला आया
इक सूखा पत्ता
दरख़्त से गिरा
और बेनूर हुआ
इक आदि का
अंत हुआ
सीने में ही घुट गया
किसी अपने के खोने का दर्द
हरी कोपल हँसी
जीवन के इस खेल का
ए दरख़्त
अफ़सोस कैसा ?
नमनाक नज़रों से
दरख़्त
आरम्भ को देखता रहा
गिरते हुए पत्तों में
रिश्तों का अंत
देखता रहा
वो अंश था मेरा
जो इस तन से
टूट गया
बेबसी की डोर पे
एक रिश्ता रूठ गया
तुम नादान हो
जीवन से अनजान हो
तुम पर बहारें मेहरबान हैं
खिजां जब आती है
मिलन के गर्भ में
वियोग दिखा जाती है
अनन्त राह का
अंत दिखा जाती है
एक पत्ता गिरता है
इक खरोंच आ जाती है
क्या होता है रिश्ता
ये ख़िजां सिखा जाती है
इसलिये ए कोपल
इंतज़ार कर
तू भी इक दिन
मेरा दर्द समझ जाएगी
फिर तुझे
हंसी नहीं आएगी
इक बेबसी होगी
जब तू
रिश्तों को समझ जाएगी
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीया Alka Changa जी आपकी आत्मीय प्रशंसा से रचना उपकृत हुई। आपका हार्दिक आभार।
क्या होता है रिश्ता ,ये ख़िजां सिखा जाती है। ...........प्रतीकों के माध्य्म से गहरा सन्देश ... आदरणीय सुशिल जी हार्दिक बधाई |
आदरणीया कल्पना जी आपकी आत्मीय प्रशंसा से रचना उपकृत हुई। आपका हार्दिक आभार।
वाह | आदरणीय सुशिल जी बहुत बढ़िया रचना हुई है यह भी | हार्दिक बधाई |
आदरणीय रामबली गुप्ता जी प्रस्तुति को अपने स्नेह बंधन से उपकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों की गहनता को अपनी आत्मीय स्वीकृति से अलंकृत करने का तहे दिल से शुक्रिया। सर इंगित टंकण त्रुटि के तरफ ध्यान आकर्षित करने का शुक्रिया। मैं इसे अभी एडिट किये देता हूँ। आपका दिल से आभार।
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