कितने कष्ट सहे हैं तूने , कैसे मुझे पढ़ाया है,
तुझे छोड़कर घर से बाहर, मैंने कदम बढाया है |
अनचाहे ही माता तुझको , मैंने आज रुलाया है
भाग्य विधाता ने भी देखो, कैसा खेल रचाया है ||
रुक जाता मैं माता क्षणमें, बस कहने की देरी थी,
जाऊँ मैं परदेस मगर माँ, ये जिद भी तो तेरी थी |
देवों को नित पूजा तूने , माला भी नित फेरी थी,
तुझको छोड़ कहीं जाऊँ मैं, ये ईच्छा कब मेरी थी ||
दमकुंगा बन कुंदन लेकिन, काम न तेरे आऊँगा,
अपने चरणों में रहने दे , तेरे ही गुण गाऊँगा |
भेज न मुझको दूर कहीं तू, माता मैं ना जाऊँगा,
दूर गया तो कैसे तुझ सी, माता फिर मैं पाऊँगा ||
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुति के भाव आप तक पहुँचे मेरा रचनाकर्म सार्थक हुआ. आपका हृदयातल से आभार. सादर.
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