क्यों खामोश हो
कुछ बोलते भी नहीं
कुछ कहते भी नहीं
कुछ सुनते भी नहीं
वो देखो वहाँ
क्षितिज के किनारे
आकार ले रहा है
प्यार बादलों में
वो देखो वहाँ
उन लहरों को
जो कर रही है बयां
प्यार चट्टानों से
वो देखो वहाँ
उन परिंदो को
जो उड़ते हुए भी
कर रहे बातें बादलों से
वो देखो वहाँ
रंग बदलते आस्मां को
किस तरह रंग बदलता है
बिलकुल तुम्हारी ही तरह
गुलाबी फ़ज़ाओं में
नारंगी का रस घोले
हरी सुकुमारी पर
बिछायी यह काली बदरी
कितने बदल गए हो तुम
पल में ही बरस पड़े हो |
देख रहे हो
कितने खामोश हैं सब यहाँ !
सब कुछ है यहाँ
फिर भी यह कैसी ख़ामोशी !
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आदरणीय सतविन्द्र भैया |
धन्यवाद आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी |
सादर धन्यवाद् आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण ' जी |
आदरणीय सुशिल सरना जी , मुझे बिलकुल बुरा नहीं लगा न ही लगेगा | जी आपने सही कहा था शाब्दिक दोष थे जिसको सही कर दिया है | आपका बहुत बहुत धन्यवाद् | सादर |
आदाब जनाब समर साहब | आपको कविता पसंद आई सार्थक हुआ मेरा यह प्रयास | सादर धन्यवाद |
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें
आदरणीय कल्पना भट्ट जी भावों का सुंदर सम्प्रेषण हुआ। हार्दिक बधाई। हाँ कहीं कहीं शाब्दिक दोष अखरता है जैसे -खोमोश=ख़ामोश ,रहीं है =रही हैं ,रास =रस। कृपया देख लें। कृपया अन्यथा भी न लेवें। सदर। ..
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