"अरे , मकान का काम देखने मम्मी जी , पापाजी को भेज दें।", राखी कुनमुनाई, "बेकार ही घर में बैठे हैं" वो सोचने लगी, " हम तो खाना निपटा कर फिर थोड़ी देर वहाँ काम देख आएँगे", सास-ससुर के जाते ही उसने आजादी की साँस ली और जल्दी से मायके फोन लगाया । वैसे तो सुबह उठकर सबसे पहले अपने पिताजी से बात करके ही उसका दिन शुरू होता है पर फिर भी पूछना था कि उन्होंने ठीक से खाना खाया कि नहीं । तभी नन्ही पलक ठुमकती आई-"मम्मी सू आरही है", "अरे भई, अपन से नहीं होता ये सब, बच्चों की सू-सू, पाॅटी", राखी ने भुनभुनाते हुए नौकर को बुलाया और पलक के साथ भेजा। " बड़ी आफत है, इतने लोगों का खाना-पीना..", उसने नौकर को खाना बनाने के निर्देश दिये और खुद अपनेकमरे में आराम करने लगी। सोच रही थी कि उसकी ननद का कैसे भी ब्याह होजाये वरना बाद में उसके ही गले आपड़ेगी। "वो तो अच्छा है कि सास-ससुर, ननद दूसरे शहर में हैं और कभी-कभार आते हैं तब भी उसे खटका लगा ही रहता है। दकियानुसी लोग हैं ", राखी सोच रही थी...."बड़ों के सामने सिर पर पल्ला लो, पैर छूकर आशीर्वाद लो, घर साफ रखो, पूजा में साथ बैठो, सबको खाना खिलाओ, ये भी कोई जिंदगी है??", "ना जींस टाॅप पहन सकते , ना दोस्तों के साथ पार्टीे और मौज-मस्ती ...ऊपर से कहीं जाना चाहोगे तो सास-ससुर कहते हैं कि ननद को भी साथ लेजाओ....", " ऐसे कोई हमेशा चिपका के रखता है क्या...??" , " भई, मैंने तो शादी के पहले दिन ही उन लोगों को अपने कमरे में आने से मना कर दिया, आखिर मेरी प्राइवेसी भी कोई चीज है....", "मेरे पापा ने इतने लाड़-प्यार से पाला है, क्या मैं इनकी चाकरी करूँ! !", राखी अपनी सोच में मगन कुढ़ रही थी, "...और ये भी तो छोटी बहन का इतना लाड़ करते हैं, भला ऐसे भी कोई लुटाता है क्या? ??"
तभी द्वार की घंटी बजी, नौकर ने दरवाजा खोला और अचानक पीछे से आकर किसी ने लाड़ से उसकी आँखें ढांप लीं । "अरे पाखी तू, आगई कालेज से", उसकी आँखें चमक उठीं, "चल तू खाना खाले फिर मेरे कमरे में आराम करना, और वो जो सलवार सूट मैंने नया सिलवाया है वो तू कल कालेज पहन जाना", उसका दिल भर आया- "माँ के देहांत के बाद 2 साल छोटी बहन को बेटी की तरह पाला है, अपनी शादी के बाद इसकी फिर पढ़ाई शुरू करवाई और कार चलाना, माॅड़ बनकर रहना सिखाया, तभी तो इसके लिए अच्छा लड़का मिलेगा.."। राखी का मायका पैदल दूरी पर होने के कारण पाखी काॅलेज के बाद रोज यहीं आजाती थी। " दीदी वो क्या है कि, फीस के पैसे ...", बोलते-बोलते पाखी रूक गई । " हाँ -हाँ, ये ले 15 हजार रूपये हैं, फीस के देने के बाद बचे पैसों से अपने लिए कुछ ले-लेना", राखी ने बड़े ममत्व से कहा। संतोष की गहरी साँस लेते वह बोली- "आखिर तेरे जीजाजी इतना कमाते किस लिये हैं ...!!"
अप्रकाशित एवं मौलिक
Comment
अंतर/दोगलापन स्पष्ट करती बहुत बढ़िया प्रस्तुति।हार्दिक बधाइयां आदरणीया अपर्णा शर्मा जी।
इंसान बहुत स्वार्थी होता है कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में उसका ये स्वभाव सामने आ ही जाता है, बहुत बहुत बधाई आपको इस लघुकथा के लिए
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online