अस्पताल में आई. सी. यू. में भर्ती बेगम साहिबा को अपने जीवन के अंतिम पलों का अहसास होने लगा था । लेकिन मज़ाकिया स्वभाव के ज़िंदा दिल मिर्ज़ा साहब उनका हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे।
"अब तो जा रहीं हूँ जनाब, अपना ख़्याल रखियेगा, ऐसे ही ख़ुशमिज़ाज बने रहियेगा!" बेगम ने मिर्ज़ा जी की हथेली थामते हुए कहा।
"पगली, ये भी कोई मज़ाक का वक़्त है, लोग 'करवा चौथ' मना रहे हैं आज और तू जाने की बात सोच रही है, ऐं!" मिर्ज़ा जी ने उनके माथे पर बोसा देते हुए कहा।
"मैं कहती थी न कि मैं तुम्हारे ख़ानदान का 'सदा सुहाग' मरने वालों का रेकॉर्ड तोड़ूंगी! सदा सुहागन ही मरूंगी!" आँखों को नम करते हुए बेगम ने कहा।
तभी आई. सी. यू. में अफ़रा-तफ़री मच गई। शॉर्ट-सर्किट से भड़की आग बुझाने की कोशिशें की जाने लगीं। कुछ शवों के साथ ही बेगम और मिर्ज़ा साहब के शव भी उनके परिजन के समक्ष रखे हुए थे। परिजन में से किसी ने कहा- "उसके भेद निराले, वो ही जाने, अल्लाह जाने!"
किसी रिश्तेदार ने कहा-"जहां चाह, वहां राह!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
इस सुन्दर मार्मिक लघुकथा के लिए बधाई।
बहुत सुन्दर कथा, बधाई स्वीकार करे आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
जनाब उस्मानी साहब हृदयस्पर्शी लघुकथा का सृजन किया है आपने बधाई आपको
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