ग़ज़ल
मात्रिक (22)
संघर्षों के जीवन रण में अपना हिस्सा हार गया,
मान के मिथ्या इस आँगन को, कोई इस के पार गया.
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विद्वत्ता से श्रेष्ठ कहाई सत्कर्मों की पुण्याई,
अहँकार के फेर में रावण! तेरा जीवन सार गया.
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प्रश्न हमारे सच्चे थे पर उत्तर झूठे थे उनके,
जब से सच का बोध हुआ है, धर्मों का आधार गया.
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ईश्वर पूजा, अल्लाह पूजा, ख़ुद के तन को कष्ट दिए,
उस जीवन की आस में मानव, ये जीवन बेकार गया.
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ईश्वर तेरे साथ चलेगा बस साँसों के स्पंदन तक,
जिस पल “नूर” तू बुझ जाएगा, समझ तेरा संसार गया.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
गज़ल अच्छी बनी है। बधाई।
ईश्वर और भगवान को अलग कीजिए न। फिर देखिए, देव !
शुक्रिया आ. सौरभ सर...आप की टिप्पणी की हमेशा प्रतीक्षा रहती है ...
अहंकार बार बार टाइपिंग में अहँकार हो रहा है, सुधार लेता हूँ ..
रही बात भगवन करने की तो पूरी ग़ज़ल उस एक के अस्तित्व ही को चुनौती दे रही है ..ऐसे में उसे संबोधित कैसे करूँ ..
मेरा मसअला तो मानव है ..
धर्म की आप की व्याख्या सही और व्यापक है ले वर्तमान परिपेक्ष्य में धर्म का वही अर्थ निकाला जाता है जो लिया गया है ...
फिर भी... चिन्तन जारी रहेगा
सादर
शुक्रिया आ समर कबीर सर
शुक्रिया आ गिरिराज जी
आदरणीय नीलेश नूर जी, आपकी प्रतिष्ठा के सापेक्ष इस ग़ज़ल से मन चकित है. ग़ज़ल अच्छी है. हार्दिक बधाइयाँ.
वैसे मैं धर्म के इतने संकुचित स्वरूप को कभी स्वीकार नहीं पाता. जिसे पंथ या सम्प्रदाय कहना था उसे हम कहने के बहाव में धर्म कहने लगते हैं. इधर बेचारे धर्म का गुणधर्म ही बदल जाता है.
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को यदि उद्धृत करूँ तो उनका कहना था, कि ’धर्म एकवचन है.यह कभी बहुवचन हो ही नहीं सकता’.
यानी धर्म मान्यताओं नहीं, स्थापित मूल्यों और सनातन गुणों को संतुष्ट करता हुआ व्यवहृत होता है. पूजा-पाठ से पंथ, सम्प्रदाय और मान्यताएँ पोषित होती हैं, न कि धर्म. धर्म ’चोरी न करो’ सिखाता है. लेकिन चोर को पूजने की बात मान्यता कर सकती है.
बाकी, आपकी ग़ज़ल है तो इसे अच्छा होना ही है.
शुभेच्छाएँ
अहँकार को कृपया अहंकार कर लें.
और, मानव को हुआ सम्बोधन यदि भगवन को हो जाय तो उक्त शेर और बड़ा हो जायेगा, ऐसा मुझे प्रतीत होता है.
शुभ-शुभ
आदरनीय नीलेश भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही आपने , केवल हिन्दी के शब्द होने से और भी अच्छा लगा । हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
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