मत्तगयंद सवैया (सूत्र=211×7+22; भगण×7+गागा)
ज्योति जले घर-द्वार सजे सब, हैं उतरे वसुधा पर तारे।
आज बनी रजनी वधु सुंदर ज्यों पहने मणि के पट प्यारे।।
थाल लिए जुगनू सम दीपक, नाच रहे खुश हो जन सारे।
आश-दिये हरते उर से तम, भाग रहे डर के अँधियारे।।1।।
किरीट सवैया (सूत्र=211×8; भगण×8)
कोटिक दीप जले वसुधा पर, है कितना यह दृश्य सुहावन।
झूम रहे नव आश भरे उर, पूज रहे मिल आज सभी जन।।
ज्योति जलाकर स्वागत में तव राह निहार रहे सबके मन।
हे! कमला गणनायक के सँग, आज पधार करें गृह पावन।।2।।
महाभुजंगप्रयात सवैया(सूत्र=122×8; यगण×8)
दिलों से मिटा द्वेष सारे पुराने, लिए प्यार के मैं तराने चला हूँ।
सभी के दिलों में जने प्यार सच्चा, नई ज्योति ऐसी जगाने चला हूँ।।
न नैराश्य हो जिंदगी में किसी की, दिये आश के मैं जलाने चला हूँ।
गमों का अँधेरा मिटे मूल से ही, धरा दीप से यूँ सजाने चला हूँ।।3।।
रचना-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
भाई रामबली जी, आपने तो दीवाली के उपलक्ष्य में इस मंच को मनोहारी प्रस्तुतियों से प्रसन्न कर दिया है. शिल्प के धरातल पर रचनाएँ शुद्ध हैं. और, अभिव्यक्ति के तौर पर महाभुजंगप्रयात के प्रयास पर मैं जितनी बार वाह-वाह करूँ, कम होगा. मैं आजतक जिस बिन्दु की तरफ आपका ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा था, उन बिन्दुओं का महाभुजंगप्रयात की रचना (सवैया) में आपने बखूबी इस्तमाल किया है.
सवैया का मुक्तक स्वरूप निखर कर खिला है. सवैया भी वस्तुतः घनाक्षरी की तरह मुक्तक ही हैं. यानी एक सवैया अपने आप में सम्पूर्ण.
मत्तगयंद और किरीट पर भी अपके अभ्यास से मन-प्रसन्न है. वैसे उन दोनों सवैयों में भाव-शब्द को लेकर तनिक और गठन उन्हें अधिक ग्राह्य बनाता. वैसे अब भी वे समर्थ प्रस्तुतियाँ हैं. लेकिन महाभुजंगप्रयात में भावदशा एकदम से निखर कर शाब्दिक हुई है.
एक बात:
आस को आश न लिखा करें. ऐसा कहीं लिखा हुआ है तो वह अशुद्ध है. आशा का आश समझ लेना आसान है लेकिन आस एक देसज शब्द है, इसे न भूलिए. इसका तत्सम स्वरूप करना उचित नहीं. जैसे देस और देश में भारी अंतर होता है. वैसा ही कुछ यहाँ भी समझ लें.
आपकी इन तीनों प्रस्तुतियों पर हार्दिक बधाइयाँ
इस सुन्दर रचना के लिए बधाई, आदरणीय रामबली जी।
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