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भाई रामबली जी, आपको मालूम है क्या करना है. अभ्यासरत हों.
छंदों को लेकर आप जैसे समर्थ रचनाकार स्पष्ट नहीं होंगे तो पाठक को इनसे सम्बन्धित भ्रामक जानकारी ही मिलेगी. आज के पाठकों को कैसी छांदसिक रचनाएँ देखने-पढ़ने को मिल रही हैं, यह इस प्रस्तुति पर कतिपय पाठकों की टिप्पणियों से ज्ञात हो रहा है. ऐसे में छान्दसिक रचनाकारों का दायित्व और बढ़ जाता है. आशा है, आप अन्यथा विभ्रमों से परे तार्किकता के साथ रचनाकर्म को उद्यत होंगे. आदरणीय मिथिलेश जी ने जैसी स्पष्टता के साथ तथ्यों को समक्ष किया है वह हर तरह से अनुकरणीय है.
शुभेच्छाएँ
पोस्ट पर अच्छी और सार्थक चर्चा हुई है. भला लगा. भाई मिथिलेश जी ने जिस तार्किकता से अपनी बात रखी है, वह अनुकरणीय है. विश्वास है, तथ्यपरकता के आग्रही आदरणीय के कहे का लाभ लेंगे.
मैं तो शिल्प के स्तर पर सहज हुए रचनाकारों से प्रस्तुतियों की पंक्तियों में भावपक्ष के नियोजन में तार्किकता की अपेक्षा रखने का आग्रही हूँ. इस हिसाब से पहले दोहे में ही निवेदन के अवसर बन रहे हैं.
कृपा करो जगदीश हे! करो जगत कल्याण।
प्रेम दया सद्भाव दो, दो शुचि तन-मन-प्राण।। ..
चौथे चरण में तन, मन और प्राण देने की बात हुई है. यहाँ दो के स्थान पर हो किया जाय तो याचकभाव में वैचारिकता अनायास ही व्याप जाएगी. वैसे, शुचि को शुभ किया जाय तो संप्रेषणीयता और बढ़ी प्रतीत होती है.
विशेष प्रयोजन के लिहाज़ से रचित इन दोहों के लिए बधाइयाँ तथा समय-संदर्भ की रचनाओं केलिए शुभकामनाएँ
शुभ-शुभ
सुन्दर सुसंकृत सुगठित दोहे हैं सभी शानदार आद० रामबली जी मेरी बधाई स्वीकारें
आदरणीय रामबली गुप्ता जी, आज अरबी फारसी और अन्य भाषाओं के शब्द हिंदी में घुल-मिल गए हैं उन्हें प्रयोग करने में कोई आशंका नहीं होनी चाहिए. यदि भारतीय छंद में रचना है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हिंदी के संस्कृतनिष्ट तत्सम शब्दों का ही प्रयोग हो. भक्तिकाल के कवियों तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, जायसी, रैदास, नाभादास आदि सभी ने भक्ति रस से ओतप्रोत रचनाओं में अरबी-फारसी शब्दों का बहुतायत में प्रयोग किया है. इसलिए ऐसे किसी भी आग्रह से परे रहना ही उचित है. बस कथ्य का सम्प्रेषण हो जाए और शब्द भावानुकूल हो. अब आप इन पंक्तियों को देखिये-
जमा-खरज नींकै करि राखै, लेखा समुझि बतावै।
सूर आप गुजरान मुहासिब, ले जवाब पहुँचावै। (सूरदास)
लागी मोहिं नाम-खुमारी हो।।
रिमझिम बरसै मेहडा भीजै तन सारी हो। (मीरा)
जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में ।
भला बुरा सब का सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में ॥ (कबीर)
क्या कहूँ, क्या हूँ मैं उद्भ्रांत? विवर में नील गगन के आज
वायु की भटकी एक तरंग, शून्यता का उज़ड़ा-सा राज़। (जयशंकर प्रसाद)
आपको इन पंक्तियों में अरबी-फारसी के शब्द मिल जायेंगे. आपने बात उठायी है तो अपने मन की भी कहता चलूँ कि भारतीय छंद के रचनाकारों में दो प्रवृत्तियाँ देखकर आश्चर्य होता है; एक, संस्कृतनिष्ट भाषा के प्रति आग्रह और दूसरा, देशभक्ति-देवभक्ति विषय के प्रति आग्रह. क्या छंदों में उन्हीं विषयों और भाषिक शब्दों को स्थान नहीं मिलना चाहिए जो अन्य अतुकांत या तुकांत यथा गीत, ग़ज़ल, कविता, नज़्म आदि में मिलता है. क्या यह एक बड़ा कारण नहीं है छंद अभ्यासियों की कम होती संख्या का. जबकि मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि छंदों में उन सभी शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है जो संस्कृतनिष्ट हिंदी के नहीं हैं और उन सभी विषयों को अभिव्यक्त किया जा सकता है जो काव्य की अन्य विधाओं में स्थान पाते हैं. संभवतः मैं अपनी बात स्पष्ट कर सका हूँ. चलते चलते एक दोहा-छंद का प्रयास-
देशभक्ति या वंदना, बस छंदों के पास
सब बातें मैं भी कहूँ, छंदों की है आस
सादर
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