एक सामयिक ग़ज़ल.....
(१२२ १२२ १२२ १२)
समाचार आया नए नोट का
गिरा भाव अंजीर-अखरोट का |
दवा हो गई बंद जिस रात से
हुआ इल्म फौरन उन्हें चोट का |
मुखौटों में नीयत नहीं छुप सकी
सभी को पता चल गया खोट का |
जमानत के लाले उन्हें पड़ गए
भरोसा सदा था जिन्हें वोट का |
नवम्बर महीना बना जनवरी
उड़ा रंग नायाब-से कोट का |
मकां काँच के हो गए हैं अरुण
नहीं आसरा रह गया ओट का |
(मौलिक और अप्रकाशित)
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
(छत्तीसगढ़)
Comment
वाह्ह्ह्ह वाह बढिया कटाक्ष बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढने को मिली है आद० अरुण निगम जी बहुत बहुत बधाई
आदरणीय अरुण निगम जी सामयिक विषय पर आपने शानदार ग़ज़ल कही शेर दर शेर दिली दाद कबूल कीजिये आदरणीय
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