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आम  हूँ  बौरा रहा हूँ

पीर में  मुस्का रहा हूँ

मैं नहीं दिखता बजट में

हर  गज़ट पलटा रहा हूँ  

फल रसीले बाँट कर बस

चोट को सहला रहा हूँ

गुठलियाँ किसने गिनी हैं

रस मधुर बरसा रहा हूँ

होम में जल कर, सभी की

कामना पहुँचा रहा हूँ

द्वार पर तोरण बना मैं

घर में खुशियाँ ला रहा हूँ

कौन पानी सींचता है

जी  रहा खुद गा रहा हूँ

मीत उनको “कल” मुबारक

“आज” मैं जीता रहा हूँ

“खास” का अस्तित्व रखने

“आम” मैं कहला रहा हूँ

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 2, 2015 at 6:57pm

छोटी बहर में बहुत ,बेहतरीन गजल कही है आदरणीय अरुण जी. आपके अंदाज ने आम को आम न रहने दिया, ख़ास बना दिया. तहे दिल से बधाई लीजियेगा

Comment by Hari Prakash Dubey on March 2, 2015 at 12:54pm

आदरणीय अरुण निगम जी बहुत सुन्दर गजल है ,हार्दिक बधाई आपको !सादर

आम  हूँ  बौरा रहा हूँ

पीर में  मुस्का रहा हूँ

मैं नहीं दिखता बजट में

हर  गज़ट पलटा रहा हूँ 

फल रसीले बाँट कर बस

चोट को सहला रहा हूँ.......शानदार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 2, 2015 at 11:29am

आदरणीय अरुण भाई , छोटी बहर मे बहुत बढिया गज़ल हुई है । दिली मुबारक बाद कुबूल करें ॥

Comment by khursheed khairadi on March 2, 2015 at 10:28am

फल रसीले बाँट कर बस

चोट को सहला रहा हूँ

गुठलियाँ किसने गिनी हैं

रस मधुर बरसा रहा हूँ

“खास” का अस्तित्व रखने

“आम” मैं कहला रहा हूँ

आदरणीय अरुण निगम सर ,उम्दा ग़ज़ल हुई है ,,बज़ट पर त्वरित प्रतिक्रिया |आम के आम गुठलियों के दाम ....ग़ज़ल भी और समीक्षा भी ....मज़ा आ गया |सादर अभिनन्दन |

Comment by Nirmal Nadeem on March 1, 2015 at 11:19pm
बहुत खूब बहुत खूब वाह वाह

एक बार दूसरा व् पांचवां शेर देख लीजिये
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 1, 2015 at 11:10pm

लाजव़ाब क्या कहने!! आदरणीय अरुण निगम जी इस गजल के माध्यम से आपका प्रथम परिचय पा रहा हूँ!

गजब की गजल है...इतनी ताजगी लिए गजल बहुत दिनों बात सुनी!! सुने सुनाए शब्दों से हटकर!!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 1, 2015 at 9:32pm

क्या कहने आदरणीय अरुण निगम जी, एक एक शेर उम्दा ख्याल से लबरेज है, छोटी बहर में ऐसी खुबसूरत ग़ज़ल पढ़ मन आनंदित है. कुछ डाउट वज्न को लेकर है ...

गज़ट, हवन को 21 और जिजिविषा को 212 में बांधना मुझे समझ नहीं आया. बहरहाल इस ग़ज़ल हेतु ढेरों दाद कुबूल करें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 1, 2015 at 9:16pm
आदरणीय अरुण सर क्या खूब रचना है हर शेर अपना अलग ही असर छोड़ रहा है बहुत बहुत बधाई आपको
Comment by somesh kumar on March 1, 2015 at 8:02pm

वाह ,वास्तविकता से लबरेज़ तंज़ |खुद को आम-आम कहकर मलाई खाने वालों पर और बिना शिकायत आम बने रहकर दुनिया को बढ़ाने वालों की हकीकत कहने के लिए |दिली दाद |

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 1, 2015 at 7:42pm

आम  हूँ  बौरा रहा हूँ

पीर में  मुस्का रहा हूँ -  -  वाह ! जब ख़ास को मतले में चुन लिया में आम से ख़ास हो गए | क्या तरकीब लगाईं है 

“खास” का अस्तित्व रखने

“आम” मैं कहला रहा हूँ | -  वाह ! बेहतरीन गजल रचना के  लिए बधाई  श्री अरुण निगम  भाई 

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