तृषित नज़र .....
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
नयन घटों की हलचल में
मधु पल सारे गए बिखर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
देह दिगम्बर रैन निहारे
बिंब चुंबन के देह सँवारे
प्रेम बंध सब चूर हो गए
स्वप्न वात में गए बिखर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
निर्झर बन बही विरह वेदना
अमृत पल कुछ रहे शेष न
श्वास श्वास से स्वप्न झरे सब
पल पल लोचन से रिसा उर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Tasdiq Ahmed Khan साहिब प्रस्तुति को आपने आत्मीय स्नेह देने का हार्दिक आभार।
मुहतरम जनाब सुशील सरना साहिब , बहुत ही सुन्दर रचना हुई है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---
आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब प्रस्तुति को आपने आत्मीय स्नेह से आशीर्वाद देने का हार्दिक आभार। आपका कहना सही है मैंने इसे छंद आधार मान कर नहीं लिखा।
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर -----------------सुन्दर मनमोहन छंद (8,6) अंत में 111 -----यह निर्वाह आद्यांत कायम नहीं रहा शायद छंद की नजर से नहीं लिखा गया . भाव की दृष्टि से उत्तम रचना . सदा की भाँति , सादर सरना जी .
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