व्यथित मन .....
कहते हैं
अंतर्मन की व्यथा को
कह देने से
हल्का हो जाता है
मन
कहा
आईने से
तो बिम्ब देख
और भी
व्यथित हो गया
मन
कहा
एकांत से
तो अंधेरों में
अट्टहास करती
असंख्य ध्वनियों ने
चीर डाला
व्यथित
मन
कहा
स्वप्न से
तो स्मृतियों के
सागर पर
मिल गया
मुझ जैसा ही
एक और
तन्हा
व्यथित
मन
देखा उसे
तो और भी
व्यथित हो गया
मन ही मन
ये
मन
व्यथा
गर्म लावे सी
निर्झरणी बन
बह निकली
भावों की सुलगन में
जल गए
मन के
कुछ अनकहे
व्यथित अंश
मिट गयी
सारी व्यथा
एक बूँद
लावे में
मन को
मिल गया
एक और
मन
निर्मल हो
समा गया
निस्संकोच
किसी
मन के
मन में
ये
व्यथित
मन
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब आप जैसे गुणीजनों की ऐसी प्रशंसा से अलंकृत हो कौन रचनाकार स्वयं को धन्य न मानेगा। आपके इस आशीर्वाद का हार्दिक हार्दिक आभार सर.
आ० सरना जी आपको शब्दों का चतुर बाजीगर कहू तो अत्युक्ति नहीं होगी. सादर
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपके आगमन से उपकृत हुआ। आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार। मंच पर आपकी कमी खलती रही।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपने आत्मीय स्नेह से पोषित कर मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपने आत्मीय स्नेह से पोषित कर मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी प्रस्तुति में निहित भावों को समर्थन देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय सुशील सरना सर, व्यथित मन की अकुलाहट को शब्दिक करती बहुत शानदार प्रस्तुति हुई है. बहुत बहुत बधाई. सादर
व्यथा
गर्म लावे सी
निर्झरणी बन
बह निकली
भावों की सुलगन में
जल गए
मन के
कुछ अनकहे
व्यथित अंश
मिट गयी
सारी व्यथा
एक बूँद
लावे में
मन को
मिल गया
एक और
मन --- आदरनीय बहुत सही बात कही आपने , ऐसे ही तो व्यथा बह जाती है और मन हल्का हो जाता है ... आपको कविता के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
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