लाडो ....
माँ
मैं तो
लाडो ही रहना चाहती थी
तुम्हारी लाडो
नाचती
कूदती
प्यारी सी लाडो
समय ने कब
बचपन की दीवारों में सेंध मारी
पता ही न चला
ज़माने की निगाहों ने
कब ज़िस्म को
छीलना शुरू किया
ख़बर ही न हुई
मैं
तिल तिल करती
मेहंदी की दहलीज़ तक
आ पहुँची
किसी के हाथों में
तेरी लाडो
कैद सी हो गयी
कोई रस्म
तेरी लाडो की
तक़दीर बदल न सकी
ख़्वाबों की धूप
नुकीली हक़ीक़त पर
कुर्बान हो गयी
मेहंदी से
हथेली जलने लगी
बेच दिया
तेरी लाडो को
उसके ही महबूब ने
ज़िस्म की मंडी में
माँ
क्या
औरों की लकीरों पर चलना ही
उसकी तकदीर है
माँ
कुछ भी तो नहीं बदला
आदि काल की नारी
आज भी
वर्तमान की कोख़ में
विद्यमान सोच से
स्वयं को
असुरक्षित मानती है
भ्रूण से लेकर
अस्तित्व तक
और अस्तित्व से लेकर
अंत तक
वो सिर्फ
संघर्ष करती है
यूँ हर तरफ़
नारी के नारे हैं
कदम कदम पर
नारी का परचम है
लेकिन कहीं न कहीं
उसकी
आंतरिक कंदराओं की दीवारों में
ज़माने की निगाहों की
अजीब सी दुर्गन्ध देती सीलन
उसे आदि काल की नारी से
मुक्त नहीं होने देती
माँ
लगता है
आज भी नारी
समाज में
इक भ्रूण की
ज़िन्दगी जीती है
न जाने कब
कोई
उसके सपनों को
उड़ान से पहले ही
कुचल कर
उसके अस्तित्व के अहसास को
शून्य कर दे
माँ
जब
कोई लाडो
नारी मन में
नारीत्व के भ्रूण को
असुरक्षा के घेरे से
मुक्त कर पायेगी
तभी वो लाडो
न केवल
अपनी माँ की
बल्कि समाज की
सशक्त
लाडो बन पायेगी
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी प्रस्तुति में निहित भावों को अपनी मधुर प्रशंसा से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब आपने रचना को अपनी गहन और मधुर प्रशंसा से ऊंचाई की नयी पायदान प्रदान की है। आपका दिल से गहराईयों से हार्दिक आभार।
आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहिब प्रस्तुति के भावों को सहमति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा से सृजन उपकृत हुआ। आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय समर कबीर साहिब आपकी आत्मीय प्रशंसा ने सदा ही मेरे सृजन को प्रोत्साहन दिया है। तहे दिल से आपका शुक्रिया।
kudos !
मुहतरम जनाब सुशील सरना साहिब , दिल की गहराइयों को छूती हुई सुन्दर कविता के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---
आदरणीय तेजवीर सिंह जी प्रस्तुति के भावों अपनी आत्मीय स्वीकृति से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी।बहुत मार्मिक और हृदय स्पर्शी कविता।
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