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किस ओर जाएँ हम कि हमें रास्ता मिले
फ़िरक़ापरस्ती का न कहीं फन उठा मिले
दिल इस जहान का अभी इतना बड़ा नहीं
हर हक़बयानी पर मेरा ही सर झुका मिले
नाज़ुक है मसअला ये अक़ीदत का दोस्तो
आईना जो दिखाऊँ तो बस बद्दुआ मिले
ख़्वाहिश कहाँ रही मुझे महलों की ऐ ख़ुदा
बस ज़ेरे-आसमाँ तेरा ही आसरा मिले
ढहने लगी हैं आज अदब की इमारतें
इतिहास मलबे में यहाँ कुचला हुआ मिले
धरती थमी-थमी है फलक भी झुका-झुका
मैं मुंतज़िर हूँ अब कि कज़ा मुझसे आ मिले
इंसान खो गया कहीं आभासी दुनिया में
अब तर्जनी से अपनी, सुकूँ ढूँढता मिले
Meaning:
फ़िरक़ापरस्ती - सम्प्रदायवाद, हक़बयानी – सच कहना, अक़ीदत - श्रद्धा,
ज़ेरे-आसमाँ - आसमाँ के नीचे, अदब – साहित्य, मुंतज़िर – इंतज़ार में, कज़ा – मौत
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ. सुशील सरना सर आपका हार्दिक आभार
आ. सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत बहुत शुक्रिया आ. तेजवीर सिंह सर
ढहने लगी हैं आज अदब की इमारतें
ऐसा न हो कि मलबे में तू भी दबा मिले
वाह आदरणीय शिज्जु शकूर साहिब गज़ब के अहसास पिरोये हैं आपने इस ग़ज़ल में। इस बेहतरीन ग़ज़ल के सृजन के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।
हार्दिक बधाई आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी।बेहतरीन गज़ल।
ढहने लगी हैं आज अदब की इमारतें
ऐसा न हो कि मलबे में तू भी दबा मिले|
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