समय के साँचे में कुछ भभका सहसा
गुन्थन-उलझाव व भार वह भीतर का
चिन्ताग्रस्त, तुमने जो किया सो किया
वह प्रासंगिक कदाचित नहीं था
न था वह स्वार्थ न अह्म से उपजा
किसी नए रिश्ते की मोह-निद्रा से प्रसूत
ज़रूर वह तुम्हारी मजबूरी ही होगी
वरना कैसे सह सकती हो तुम
मेरी अकुलाती फैलती पीड़ा का अनुताप
तुम जो मेरे कँधे पर सिर टिकाए
आँखें बन्द, क्षण भर को भी
मेरा उच्छवास तक न सह सकती थी
और अब ....
कभी इस कभी उस स्थिति के नेपथ्य में
छोटी-मोटी बातों में भी अनायास
कुछ भी होना
या न होना
सब मेरा ही अपराध हो जाता है
अप्रमाणिकता जिसकी बड़ी देर तक मुझमें
भटकती परखती सुलगती रहती है
काँपते उदगारों के दीखते परिदृश्य में
शब्द हवा में फड़फड़ाते
उलझे... अनसुने... घबराए...
उतरकर तुम तक पहुँच ही नहीं पाते
फड़फड़ाते अनसुने शब्दों के अर्थों का भार
व्यथित अंगार, स्वयं से स्वयं की दूरियाँ
विक्षोभित मन यह फ़ासले सह नहीं पाता
गहराता जा रहा है भीतर स्याह घेरे में
पिघल-पिघल कर विस्तृत होती पीड़ा में
निस्तब्धता का ज़हर
जीवन के अन्त में अन्त तक
मानसिक सूक्षमतम कोषों में
तुमसे संवेदना की अपेक्षा करते
कण-कण होकर बिखरते
ऐसे में दरारें नहीं पड़ जाएँगी क्या
समय के साँचे में दीवारों को ताकते ?
--------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
भावपूर्ण रचना: बधाई. विक्षोभित मन कैसे विक्षुब्ध हुआ...सोच रहा.....
"कुछ भी होना
या न होना
सब मेरा ही अपराध हो जाता है" नियति या भोगा हुआ यथार्थ....भाव सिन्धु की दशा का सुन्दर वर्णन.
आओ निकोर जी . कविता तीन सन्दर्भों में सिमटी है-
ज़रूर वह तुम्हारी मजबूरी ही होगी-----------दिल बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है
सब मेरा ही अपराध हो जाता है---------------मैं गुनहगार हूँ जो चाहे सजा दो मुझको
तुमसे संवेदना की अपेक्षा करते---------------दिल है कि मानता नहीं
कविता यदि स्वयं को बहलाने का साधन न हो तो कोइ क्यों लिखे --------------भावनावों को मर्मस्पर्शी संवेदना के माध्यम से उकेरती इस अद्भुत रचना के लियी आपको प्रणाम . सादर .
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय समर कबीर जी
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