"आज फिर तेरा मुँह सूखा सूखा लग रहा है, लगता है आज भी कुछ नहीं खाया तूने", माँ ने उसको देखते ही टोका|
"बहुत भूख लगी है माँ, कुछ खिला पहले", उसने बात को टालने की गर्ज से कहा|
"ठीक है तू हाथ मुँह धो ले, कुछ गर्मागर्म बनाती हूँ तेरे लिए", माँ तुरंत रसोई की तरफ लपकी और फिर उसका बोलना चालू हो गया "पता नहीं कब अकल आएगी इस छोरे को"|
जल्दी से गरम पकोड़े उसके सामने रखते हुए वह बोली "चाय भी बना रही हूँ, तू आराम से खा| वैसे आज तूने पैसों का क्या किया, टिफ़िन तो तू ले ही नहीं जाता"|
"बहुत अच्छे बनाती है तू पकोड़े, इतना बढ़िया कहीं नहीं मिलता", उसने जल्दी जल्दी खाते हुए कहा|
"ठीक है, इतना मस्का मत लगा, और लाती हूँ", एक बार उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए माँ फिर से किचेन में घुस गयी|
"ले, चाय भी पी, और बता आज पैसे कहाँ गए", माँ उसके सामने बैठ गयी|
"माँ, आज रग्घू के पास पैसे नहीं थे, उसने बोला कि सुबह से कुछ खाया नहीं है तो मैं क्या करता", उसने चाय पीते हुए कहा|
उनकी बात सुन रहे पिताजी ने अपने हाथ का अखबार नीचे रखा और उसको घूरते हुए कहा "कब समझेगा तू, जिसे देखो वही बेवकूफ बना के चल जाता है| अरे इस तरह से रहेगा तो दुनिया लूट लेगी तुझको"|
माँ ने एक बार कड़ी निगाहों से पिताजी को देखा और उठ कर उसका सर सहलाने लगी "कोई जरुरत नहीं है तुझे दुनियादारी सीखने की, तू जिंदगी भर बस ऐसे ही रहना"|
उसने एक बार निगाह उठाकर माँ की तरफ देखा और मुस्कुरा उठा| पिता ने एक लंबी सांस छोड़ी फिर से अखबार उठा लिया, उनको भी पता था कि वह कभी नहीं समझेगा|
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
इस हौसला अफ़ज़ाई के लिए दिल से आभार आ मुहतरम समर कबीर साहब
बहुत बहुत आभार आ महेंद्र कुमार जी
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