यादों का सफर ...
मैं
चलता रहा
हर उस रास्ते पर
जहां पर आज
खिजाओं के डेरे थे
मैं
चलता रहा
हर उस रास्ते पर
जहां आज
उजालों में अंधेरे थे
मैं
चलता रहा
हर उस रास्ते पर
जहां आज
सिर्फ
यादों के घेरे थे
मैं
रुक गया
चलते चलते
जहां मंज़िल ने
मुँह मोड़ा था
मैं
हंस पड़ा
उस खार की अदा पर
जिसके दर्द में
यादों के डेरे थे
मैं
बे-आवाज़
वक्त के निशानों को
शज़र के तनों पर
धीरे धीरे
ग़ुम होते
दिल के बने
निशान पर लिखे
आई लव यू
को देखता रहा
मैं
रुक गया
वहीं पर
ले लिया
उसी शजर का सहारा
जहां मेरे ख़्वाब
मुझे आज भी अपने स्पर्शों से
ज़िंदा रखते हैं
मैं
चलते चलते
थक गया हूँ
खो जाना चाहता हूँ
रास्तों की गर्द में
खो जाना चाहता हूँ
सफर के अधूरे
निशानों में
अब दिल
अपने सफ़र का
मुक़ाम चाहता है
वो
उसकी यादों के
ज़िंदाँ में ही
अब
ज़िंदा रहना चाहता हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर साहिब ये आपका बड़प्पन है जो आप इस नाचीज़ के सृजन को इतना मान देते हैं। थैंक्स
आदरणीय Mahendra Kumar जी प्रस्तुति को अपना आत्मीय स्नेह देने का हार्दिक आभार। आ. समर साहिब की बात से मैं पूर्णतः सहमत हूँ और तदनुसार उसे मैंने संशोधित पर कर दिया है। आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति को अपने स्नेहिल शब्दों से शोभित करने का दिल से आभार। आपका मार्गदर्शन मेरे लिए बहुत मायने रखता है। आपकी सूक्षम समीक्षा में इंगित बिंदु की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित करने का तहे दिल से शुक्रिया। मैं आपके विचारों से पूर्णतः सहमत हूँ और तदनुसार मैंने प्रस्तुति में संशोधन भी कर दिया है जो पटल पर पुनः प्रस्तुत हो गयी है। अपना मार्गदर्शन ऐसे ही बनाये रखें। सादर .....
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