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2122    1212   22  

 

श्याम तेरी अलक में खो जाऊं

एक न्यारे खलक में खो जाऊं

 

नेह से आँख जो हुयी बोझिल

बंद तेरी पलक में खो जाऊं

 

तू अँधेरे में काश दिख जाये 

और मैं उस झलक में खो जाऊं

 

रूप ऐसा कि थे सभी पागल

मैं उसी छवि-छलक में खो जाऊं

 

है सुना वह तेरा ठिकाना है  

तो चलूँ उस फलक में खो जाऊं

 

 (मौलिक /अप्रकाशित )

 

 

 

 

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 2, 2017 at 9:26pm

आ० महेंद्र जी  बहुत बहुत आभार  

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 2, 2017 at 9:25pm

आ० समर कबीर साहिब/ डॉ है मुझे भी अटपटे लग रहे थे  आपने उसकी तस्दीक कर दी .आपके हिसाब से सही कर लूंगा सादर .  

Comment by Samar kabeer on January 2, 2017 at 5:49pm
जनाब डॉ.गोपाल नारायण श्रीवस्त्व जी आदाब,बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है,डैड के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं ।
आख़री शैर के ऊला मिसरे में दो बार 'है'शब्द ठीक नहीं लगता,मुनासिब समझें तो मिसरा यूँ कर लें:-
'जब सुना वो तेरा ठिकाना है'
Comment by Mahendra Kumar on January 2, 2017 at 3:41pm
तू अँधेरे में काश दिख जाये
और मैं उस झलक में खो जाऊं ...वाह! बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय डॉ. गोपाल नारायन सर। मेरी तरफ से हार्दिक बधाई निवेदित है। सादर।

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