भटकन में संकेत मिले तब अंतर्मन से तनिक डरो।
सब साधन निष्फल हो जाएँ, निस्संकोच कृपाण धरो।
व्यर्थ छिपाये मानव वह भय और स्वयं की दुबर्लता।
भ्रष्ट जनों की कट्टरता से सदा पराजित मानवता ।
सब हैं एक समान जगत में, फिर क्या कोई श्रेष्ठ अनुज?
मानव-धर्म समाज सुरक्षा बस जीवन का ध्येय मनुज।
प्रण-रण में दुर्बलता त्यागो, संयत हो मन विजय वरो।
शुद्ध पंथ मन-वचन-कर्म से, सृजन करो जनमानस में।
भेदभाव का तम चीरे जो, दीप जलाओ अंतस में ।
शब्द-हीनता, श्वास-हीनता लक्षण हैं बस यंत्र मनुज।
मौन समर्थन पर-पीड़ा का, समझो है परतंत्र मनुज।
पराधीन मत रहो, कहा यह- तुम हो ज्योति-प्रपात, झरो।
जब संत्रास जगत पर हावी, निर्जन पथ का हर कोना,
जब केवल कर्तव्य पथों पर भाग्य मनुज का हो रोना।
स्वयं लड़ाई लड़नी होगी, तब अपने अधिकारों की।
व्यर्थ प्रतीक्षा कलयुग में है स्वप्नों के अवतारों की ।
तारणहार नहीं है कोई, भवसागर से स्वयं तरो।
चाहा बस कल्याण जगत का, कष्ट दिखा कब सम्मुख का?
आहुति प्राणों की देकर बस, किया सदा पोषण सुख का।
सुख का श्रेय प्रकृति को माना, यह दुख मानव निर्मित सा।
शाश्वत सत्य यही है प्रियवर, सृष्टि पटल पर अंकित सा।
सदा कहा- जिस पथ मानवता, उस पथ को प्रस्थान करो।
कहाँ लालसा सत्ता सुख की, शांति मनुज की बस चाही।
सकल वेदना जनमानस की, युगपुरुषों की हमराही।
संघर्ष सतत् अंतिम क्षण तक करना है यह बोल रहे।
स्वाभिमान का मूल मन्त्र, बस इतना कहकर खोल रहे-
रंगहीन है निर्जन जीवन, इन्द्रधनुष के रंग भरो।
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय 'संत सिपाही' गुरु गोविन्द सिंह जी को समर्पित
Comment
आदरणीय गोपाल सर, प्रस्तुति अवसर विशेष से सम्बंधित होने के कारण अपेक्षाकृत जल्दबाजी वाली है.इसलिए कमियां होगी, इसका अंदेशा था. चूंकि गीत गुनगुनाते हुए लिखता हूँ इसलिए मात्रा त्रुटी की संभावना बनी रहती है. जिन पंक्तियों की ओर आपने ध्यानाकर्षित किया हैं. उनके विषय में निवेदन है-
1-सब हैं एक समान जगत में, क्या ईश्वर को ज्येष्ठ-अनुज?---------> सब हैं एक समान जगत में, फिर क्या कोई श्रेष्ठ-अनुज
2-सत्ता का सुख कब चाहें वें? शांति मनुज की बस चाही।-----------> इस पंक्ति को मूल रूप से बिलकुल वैसा ही लिखा है जैसा आपने सुझाया है. लेकिन बाद में अगली पंक्ति में युगपुरुषों का उल्लेख आने के कारण इसमें संशोधन किया था. किन्तु अब आपका कहना सही है इसे उसी रूप में रखना चाहिए तभी पूरी पंक्ति सही लगेगी. //सत्ता का सुख कब चाहा था, शान्ति मनुज की बस चाही//
//आपके गीत का प्रथम चरण शुरू से आखिर तक आल्हा की भाँति चला है , फिर --------संघर्ष करो, उत्साह भरो- अंतिम क्षण तक यह बोल रहे। में न केवल प्रथम चरण का र्रिदम बदला बल्कि द्वतीय चरण में 16 मात्राएँ हो गयी //
आदरणीय यह गीत आल्हा या वीर छंद में नहीं लिखा है क्योकि आल्हा या वीर में मात्राएँ (16-15) होती है और अंत गुरु-लघु से होता है. यह गीत वास्तव में लावणी (16-14) के अधिक निकट है. यह मात्रिक स्वरुप कुकुभ एवं ताटंक छंद का भी होता है किन्तु उसमें सम चरण के अंत में क्रमशः दो गुरु या तीन गुरु अनिवार्य है.
गीत का उपसंहार करते करते लय तनिक बहक गई लगता है. आपने सही कहा //संघर्ष करो, उत्साह भरो- अंतिम क्षण तक यह बोल रहे।// में लय बदल गई है और 2 मात्रा भी अधिक हुई है अतः इसमें निम्नानुसार संशोधन किया है-
//संघर्ष सतत् अंतिम क्षण तक, करना है यह बोल रहे।
स्वाभिमान का मूल मन्त्र, बस इतना कहकर खोल रहे-//
आपने प्रस्तुति को इतनी बारीकी से पढ़ा और तदनुरूप त्रुटियों की तरफ ध्यान भी आकर्षित किया. यह मेरे लिए बड़ी बात है. आपके मागदर्शन अनुसार पुनः प्रयास किया है. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
आदरणीय समर कबीर जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
आदरणीय सुरेन्द्र जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
आ० मिथिलेश जी , आपने 16, 14 पर गीत रचा है , कुछ बिंदु विचारणीय है -
1-सब हैं एक समान जगत में, क्या ईश्वर को ज्येष्ठ-अनुज?
2-सत्ता का सुख कब चाहें वें? शांति मनुज की बस चाही।------- कब चाहा था सत्ता का सुख , शांति मनुज की बस चाही
3-आपके गीत का प्रथम चरण शुरू से आखिर तक आल्हा की भाँति चला है , फिर --------संघर्ष करो, उत्साह भरो- अंतिम क्षण तक यह बोल रहे। में न केवल प्रथम चरण का र्रिदम बदला बल्कि द्वतीय चरण में 16 मात्राएँ हो गयी .
आ० आपकी प्रतिभा असंदिग्ध है यह आपकी जल्दबाजी का परिणाम है . कभी कभी मैं भी ऐसा करता हूँ पर आपसे सदैव एक अपेक्षा रहती है इसीलिये इतना कह सका . सादर .
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