सच ,लगने लगा पराया ...
न मेरा
आना झूठ था
न तेरा
जाना झूठ था
दूर जाने का मुझसे
बस बहाना
झूठ था
जीती रही
जिस शब् को
हकीकत मानकर
सहर की शरर पे सोया
वो
अफ़साना झूठ था
बादे सबा
में लिपटी
सदायें
यूँ तो आयी थीं
तेरे बाम से मगर
उसमें छुपा
हिज़्रे ग़म को
बहलाने का
तराना झूठ था
इक झूठ
तूने जिया
इक झूठ
मैंने जिया
न सच
तुझे भाया
न सच
मैंने अपनाया
कैसी की
तूने मुहब्बत
झूठ
बन गया सच
और सच
लगने लगा पराया
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Mohammed Arif जी प्रस्तुति पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी प्रस्तुति पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी प्रस्तुति में निहित भावों को अपनी आत्मीय प्रशंसा से शोभित करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय आशुतोष जी प्रस्तुति पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब आपके द्वारा बताई गयी टंकण एवम तकनीकी त्रुटि को दुरुस्त कर मैं इसे पुनः पोस्ट कर रहा हूँ। आपने जिस स्नेह से सृजन को संवारा है उसके लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया। मेरा सृजन आपके मार्गदर्शन का सदैव आभारी रहेगा।
आदरणीय सुशील सरना सर, आपने झूठ शब्द के इर्द गिर्द बिम्ब आधारित बढ़िया कविता लिखी है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. सादर
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